Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 668
________________ ६१८ गो० कर्मकाण्डे तीर्थमुमन्यतराद्विकमुमितु मूरुं प्रकृतिगळं मत्तमनंतानुबंधिकषायचतुष्टयं सहितमागि एळं प्रकृतिगळ तथा च अहंगे. आहारकचतुष्टयदोडने युमेळं प्रकृतिगळुमा अनंतानुबंधिकषाय चतुष्टयं सहितमागि एकादश प्रकृतिगर्छ सत्वरहितमागि नाल्कुं सत्वस्थानंगळप्पुवु॥ अनंतरमा बद्धाबद्धायुष्यरुगळ सत्वस्थानंगळोळु भंगंगळ संख्येयं पेळ्वपरु : साणे पण इगि भंगा बद्धस्सियरस्स चारि दो चेव । मिस्से पण पण भंगा बद्धस्सियरस्स चउ चउ णेया ॥३७५॥ सासादने पंचैक भंगा बद्धस्येतरस्य चत्वारो द्वौ चैव । मिश्रे पंच पंच भंगा बद्धस्येतरस्य चत्वारश्चत्वारो ज्ञेयाः॥ ___सासावननोळ बद्घायुष्यंगैदुमोदु भंगंगळप्पुवु । इतरनप्प अबद्धायुष्यंग नाल्कुमरडं १. भगंगळप्पुवु। मिश्रनोळु बद्धायुष्यंगय्वन्दु भंगंगळप्पुवु । इतरनप्प अबद्घायुष्यंगे नाल्कु नाल्कुं भंगंगळप्पुवु । अदेते दोडे पेळल्पडुगुं। चतुर्गतिय सासादननप्पुरिदं विवक्षित भुज्यमान बद्धयमानायुर्वयमल्लवितरायुद्वितयमुं तोत्थंमुमाहारकचतुष्टयक चतुष्टयमुमितेळ प्रकृतिगळ रहितमागि नूरनाल्वत्तोंदु प्रकृतिसत्वस्थानदोळ मुंपेळ्द चतुर्गतिबद्धायुष्यरुगळ द्वादश भंगंगळोळु पुनरुक्त समभंगंगळं कळदु शेष पंच भगंगळप्पुवु । अल्लि अबद्धायुष्यं चतुर्गतिजनप्पुरिदं विवक्षित १५ भुज्यमानायुष्यमल्लवितरायुस्त्रितयमु तीर्थमुमाहारकचतुष्टयमुमते टुं प्रकृतिगळु सत्वरहितमागि नूरनाल्वत्तु प्रकृतिसत्वस्थानदोळु नाल्कुं गतिय भुज्यमानायुश्चतुष्टय भेदविदं नाल्कु भंगंगळप्पुq । तीर्थमन्यतरायुषी चेति तिस्रः । ता एव पुनः अनतानुबंधिचतुष्केण सप्त वा आहारकचतुष्केण सप्त । अमूः पुनः अनंतानुबंधिचतुष्केणैकादश भवंति ॥ ३७४ ॥ अथ तेषु स्थानेषु भंगसंख्यामाह सासादने भंगाः पंचको बतायुष्कस्य । इतरस्य चत्वारो द्वौ। मिश्रे पेंच पंच बद्धायुष्कस्य । इतरस्य २० चत्वारश्चत्वारः । तद्यथा-एकचत्वारिंशच्छतप्रकृतिके चतुर्गतिबद्धायुषां द्वादशभंगेषु सप्त पुनरुक्तान्विना पंच आगे मिश्रगुणस्थानमें घटायी गयी प्रकृतियोंको कहते हैं-.. मिश्रमें तीर्थकर और भुज्यमान बध्यमान बिना दो आयुके एक सौ पैंतालीस रूप प्रथम स्थान है । तीन ये और अनन्तानुबन्धी चतुष्क अथवा आहारक चतुष्क बिना एक सौ इकतालीस प्रकृतिरूप दूसरा और तीसरा स्थान है। तथा तीन पूर्वोक्त, चार अनन्तानु२५ बन्धी और आहारक चतुष्क इन ग्यारह के बिना एक सौ सैंतीस रूप चतुर्थ स्थान है। ये बद्धायुके स्थान हैं। इनमें एक-एक बध्यमान आयु घटानेपर अबद्धायुके स्थान होते हैं ॥३७४।। आगे इनमें भंगोंकी संख्या कहते हैं सासादनमें बद्धायुके भंग पाँच और एक होते हैं। अबद्धायुके चार और दो होते हैं। मिश्रमें बद्धायुके पाँच-पाँच भंग होते हैं। अबद्धायुके चार-चार भंग जानना। वह इस ३० प्रकार होते हैं सासादनमें एक सौ इकतालीस प्रकृतिरूप प्रथम स्थानमें चारों गतिके बद्धाय जीवोंकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698