Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 628
________________ ५७८ गो० कर्मकाण्डे शेषंद्रियकायिके अपूर्णवत् एकेंद्रियविकलत्रयपृथ्विकायिक अप्कायिक वनस्पतिकायिकगळोळ लब्ध्यपर्याप्तकंगे पेळदंते तीर्थकरत्वमुं नारकायुष्यमुं देवायुष्यमुं रहितमागि योग्य. सत्वप्रकृतिगळ, नूर नाल्वत्तय्दप्पु १४५ वल्लि मिथ्यादृष्टियोळु सत्वंगळ नूर नाल्बत्तय्दु १४५ । असत्वं शून्यं ॥ सासादननोळाहारकद्वयमसत्वमक्कं २। सत्वंगळ नूर नाल्वत्तमूरु । १४३ ॥ ५ संदृष्टि: ए। वि ३। पु । अव । योग्य १४५ । | ० मि | सा स १४५ १४३ | अ ० २ तेजोद्विके न नरायुः तेजस्कायिकंगळोळु वायुकायिकंगळोळं मनुष्यायुष्यं सत्वमिल्लदु कारणमगि योग्यसत्वप्रकृतिग नूर नाल्वत्तनाल्कप्पु १४४ वल्लि मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमो दयक्कुमेके दोडे-ण हि सासणो अपुण्णे साहारण सुहुमगे य तेउदुगे ये बो नियममुंटप्पुरिदं । सर्वत्रोद्वे. ल्लनापि भवेत् यिद्रियमार्गयोळं कायमार्गयोळं सर्वत्र परप्रकृतिस्वरूपपरिणमनलक्षण१० मुद्वेल्लनमुमरियल्पडुगु। मुवेल्लनमें बुदेन दोडे नेणुतुदियिदं हुरि बिच्चि नेण्क डुवते पदिमूरुं शेषकद्वित्रिचतुरिंद्रियपृथ्व्यब्वनस्पतिकायिकेषु लब्ध्यपर्याप्तवत्तीर्थन रकदेवायुरभावात् सत्त्वं पंचचत्वारिशच्छतं । तत्र मिथ्यादृष्टौ सत्त्वं पंचचत्वारिंशच्छतं, असत्त्वं शून्यं । सासादने आहारकद्वयमसत्त्वं, सत्त्वं त्रिचत्वारिंशच्छतं । तेजोद्विके मनुष्यायुर नेति सत्वं चतुश्चत्वारिंशच्छतं । तत्र मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमेकमेव । ‘णहि १५ सासणो अपुण्णे साहारणसुहुमगे य तेउदुर्ग' इति नियपात् । सर्वत्र इंद्रियमार्गणायां कायमार्गणायां चोद्वेल्लनापि इन्द्रिय मार्गणामें कहते हैं इन्द्रिय और कायमार्गणामें पंचेन्द्रिय और त्रसकायमें गुणस्थानवत् सत्व एक सौ अड़तालीस । गुणस्थान चौदह । उनमें सब रचना गुणस्थानोंकी तरह ही जानना। शेष एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय तथा पृथ्वी अप् वनस्पतिकायिकोंमें लब्ध्यपर्याप्तककी २० तरह तीर्थकर नरकायु और देवायुका अभाव होनेसे सत्त्व एक सौ पैंतालोस । वहाँ मिथ्या दृष्टिमें मत्त्व एक सौ पैंतालीस, असत्व शून्य । सासादनमें आहारकद्वयका असत्त्व, सत्त्व एक सौ तैंतालीस। तेजकाय वायुकायमें मनुष्यायु भी नहीं होती अतः सत्त्व एक सौ चवालीस। उनमें एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है क्योंकि ऐसा नियम है कि लब्ध्यपर्याप्तक, साधारण२५ वनस्पति, सूक्ष्मकाय, तेजकाय वायुकायमें सासादन गुणस्थान नहीं होता। तथा सर्वत्र इन्द्रिय मार्गणा और कायमार्गणामें उद्वेलना भी होती है । जैसे रस्सीको बलपूर्वक उधेड़नेसे उसका रस्सीपना नष्ट हो जाता है उसी प्रकार जिन प्रकृतियोंका बन्ध किया था उनको उद्वेलन भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698