Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 629
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ५७९ प्रकृतिगळु संक्लिष्ट जीवंगाळदमुवेल्लन भागहारदिदमपकर्षिसिकोड परप्रकृतिस्वरूपमप्पंतु माडि कडिसल्पडुगुमदनुवेल्लनमें बुदु । आ उद्वेल्लनप्रकृतिगळाउदोडे पेळ्दपरु: हारदु सम्म मिस्सं सुरदुग णारयचउक्कमणुकमसो। उच्चागोदं मणुदुगमुत्वेन्लिज्जति जीवेहिं ॥३५०।।। मुंदे विस्तरमागियुवेल्लनविधानं पेळल्पडुगुमीसत्व प्रकरणदोळु प्रसंगायातमप्पुरिदमा- ५ हारकद्विक, सम्यक्त्वप्रकृतियुं मिश्रप्रकृतियुं सुरद्विकमुं नारकचतुष्कमुं उच्चैग्र्गोत्रमुं मनुष्यद्विकमुमेंब पदिमूरुं प्रकृतिगळुक्तक्रमदिदं जीवंगाळदमुवेल्लनविधानदिदं केडिसल्पडुवुवावाव जीवंगळावाव प्रकृतिगळगुवेल्लनमं माळ्पुर्व दोडे पेन्दंपरु : चदुगदिमिच्छे चउरो इगिविगले छप्पि तिणि तेउदुगे । सिय अस्थि णत्थि सत्तं सपदे उप्पण्णठाणेवि ॥३५१॥ चतुर्गतिमिथ्यादृष्टौ चतस्रः एकविकले षडपि तिस्रस्तेजोद्विके स्यादस्ति नास्ति सत्त्वं स्वपवे उत्पन्नस्थानेपि ॥ चतुर्गतिय मिथ्यादृष्टियोळ नाल्कु। एकेंद्रियविकलत्रयंगळोळारु। तेजोद्विकदोळु मूरुप्रकृतिगळ । स्वस्थानदोळमुत्पन्नस्थानदोळं स्यात्सत्वंगळं स्यादसत्वंगळुमप्पुवदेतेंदोडे तोत्यंकरत्वमुं नरकायुष्यमुं देवायुष्यमुं सत्वमिल्लद चतुर्गतिय संक्लिष्टमिथ्यादृष्टि जीवनाहारक. १५ द्विकमनुवेल्लनमं माडिद पक्षदोळ नूरनाल्वत्तमूर प्रकृतिगळ सत्वमक्कु-१४३। मवरोळ. भवेत् बल्वेजरज्जुभावविनाशवत् प्रकृतेरुवेल्लनभागहारेणापकृष्य परप्रकृतितां नीत्वा विनाशनमुद्वेल्लनं ॥३४९॥ ताः प्रकृतीराह उद्वेल्लनविषानं विस्तरेण वक्ष्यमाणमप्यत्र प्रसंगायातं आहारद्विकं सम्यक्त्वप्रकृतिः मिश्रप्रकृतिः सुरद्विक नारकचतुष्कं उच्चैर्गोत्र मनुष्यद्विकं चेति त्रयोदश प्रकृतयः क्रमेणोद्वेल्ल्यंते ॥३५०॥ कै वैः का इति चेदाह- २० चतुर्गतिमिथ्यादृष्टी चतस्रः । एकविकलेंद्रियेषु षट् । तेजोद्विके तिस्रः । स्वस्थाने उत्पन्नस्थाने च सत्त्वं स्यादस्ति स्यान्नास्ति । तद्यथाहारके द्वारा अपकर्षण करके अन्य प्रकृतिरूप करना और इस प्रकारसे उनको नष्ट करनेका नाम उद्वेलन है ॥३४९| आगे उद्वेलना प्रकृतियों को कहते हैं आगे उद्वेलनाका विधान बिस्तारसे कहेंगे। फिर भी यहाँ प्रसंगवश कहते हैं। आहारकद्विक, सम्यक्त्व प्रकृति, मिश्र प्रकृति, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग, उच्चगोत्र, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी ये तेरह प्रकृतियोंकी क्रमसे उद्वेलना की जाती है ।।३५०॥ कौन जीव किस प्रकृतिकी उद्वेलना करता है, यह कहते हैं चारों गतिके मिथ्यादृष्टि जीवोंके चार, एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियके छह और तेजकाय वायुकायके तीन प्रकृतियाँ स्वस्थान और उत्पन्न स्थानमें कोई प्रकारसे हैं और कोई प्रकारसे १. व वल्वरजोरयादुद्वलेनेनैव प्रकृते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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