Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 654
________________ ६०४ गो० कर्मकाण्डे नूरनाल्वत्तारु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कु । मिदोंदे भंगमेके दोर्ड बध्यमानेतर ":" तिर्थ मनुष्यायुध्यनप्प भुज्यभानमनुष्यायुष्यंगसंयतसम्यग्दृष्टिगे तीर्थबंधप्रारंभं निधनदिदमिल्लेश दोडे तित्थयरबंधपारंभया णरा के बळिदुगंते एंब नियममुंटप्पुरिदं ।' बध्यमानदेवायुष्यनप्प मनुष्याऽ. संयतादि नाल्कुं गुणस्थानत्तिगने सम्यग्दर्शनच्युतिमिल्ल । भुज्यमाननार के बध्यमानमनुष्यायुष्यं मिथ्यादृष्टियल्लनेके दोडे षण्मासावशेषमात्तिरलु बद्धमनुष्यायुष्यंगे गधितरणकल्याणमुंटप्पुदरिदमदु कारणमागि भंगो दे सिद्धमक्कु । मा जीवं नारकनागि पर्याप्रिोरेबन्न तहसकालपय्यंतं पिथ्यादृष्टियागिककुमब द्वायष्यनप्पुरिदं । भुज्यमाननर कायष्यमल्लवितरतिर्थमनुष्यदेवायऽयंगल मूरुं रहितमागि नर नाल्बतन्दु प्रकृतिसत्वस्यान नक्कुमिदो दे शंगं । संदृष्टि :-- तिर्यग्देवायुरभावात्षट्चत्वारिंशच्छतं सत्त्वस्थानं भवति । (१) अस्य तु भंगः बध्यमानतिग्मनुष्णातुर्भुज्यमानमनुष्यायु संयतयोस्तीर्थबंधप्रारंभाभावात्, (२) बध्यमानदेवायुर्मनुष्यासंयतादि चतुर्गा सम्मान प्रत्यभावात् । (३) भुज्यमाननारकबध्यमानमनुष्या युपोमिथ्यादृष्टिर्मास्ति कुतः ? षण्मासावशेपे संभात्तीर्थ सत्यस्य तदा गर्भावतरणकल्याणसद्भावात् मिथ्यादृष्टित्वाघटनाच्चैक एव । स एव जोबो नार को भूलकर पर्याप्तिानपात्यमुंहूतं मिध्यादृष्टिर्भूत्वा तिष्ठति तस्याबद्धांपुष्कृत्वाद्भज्यमानायुष्यादित रेषामभावात्पंचचत्वारिंशतं सत्त्वस्वानं भवति । तत्रापि भंग एक एव । दृष्टि: २० १५ द्वारा तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धका प्रारम्भ कर तीर्थकरकी सत्तावाला होकर मरणकाल आनेवर भुज्यमान आयु में एक अन्तमुहूर्त शेष रहनेपर मिथ्यादृष्टि हुआ। उस जीव के तियं चायु और देवायुका अभाव होनेसे एक सौ छियालीस प्रकृतिस्वरूप सत्त्व स्थान होता है। यहाँ भंग एक ही होता है उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-जिस असंयत सम्यग्दृष्टी मनुष्यने तियं चाय या मनुष्यायुका बन्ध कर लिया है उसके तीर्थंकरके बन्धका प्रारम्भ नहीं होता। और जिसने देवायुका बन्ध कर लिया है वह असंयत आदि चार गुणस्थानवर्ती मनुष्य सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट होकर मिथ्यात्वमें नहीं आता। तथा मुज्यमान नरकायु और बध्यमान मनुष्यायु मिथ्यादृष्टि नहीं होता क्योंकि जिसके तीर्थंकरकी सत्ता है ऐसा नारफी नर कायुके छह मास शेष रहनेपर उसका गभोवतरण कल्याणक होता है तब वह सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यादृष्टि नहीं होता । अतः एक सौ छियालीसके सत्त्वमें भुज्यमान मनुष्यायु बध्य२५ मान नरकाय यह एक ही भंग होता है। तथा अबद्धायके मुज्यमान एक आय का सत्त्वके सिवाय अन्य आयुका सत्त्व सम्भव नहीं है अतः देवायु, मनुष्यायु, तियं चायुके बिना एक सौ पैंतालीसका सत्तस्थान होता है । उसमें भी मुज्यमान नरकायु यह एक ही भंग होता है। क्योंकि वही मुज्यमान नरकायु तथा तीथंकरकी सत्ताबाला मनुष्य जब मरकर नरकमें उत्पन्न होता है तब उसके निवृत्यपर्याप्तक अवस्थामें एक अन्तर्मुहूतं पर्यन्त मिथ्यादृष्टिपना ३० रहता है। उस अवस्थामें अबद्धायु होनेसे भुज्यमान एक नरकायुके सत्त्वके सिवाय अन्य तीन आयुका सत्त्व न होनेसे एक सौ पैतालीसका सत्त्व होता है, अन्यके नहीं होता। १. बद्धतिर्यग्मनुष्यायुष्यदोलु तीर्थसत्वं दोरेकोल्लदेंदुमुंदे तावे पेल्दपरप्पुरिदमिल्लियुमदे तात्पर्य । २. ब°ष्टित्वा भावावेकभंगमेव । स एव जीवो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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