Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 647
________________ कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका आउघाणभेदमकाऊण वण्णणं पढमं । भेद्रेण य मंगसमं परूवणं होदि विदियम्मि || ३५९ || आयुबंधाबंधन भेदन कृत्वा वर्णनं प्रथमं । भेदेन च भंगसमं प्ररूपणं भवति द्वितीयस्मिन् ॥ आयुब्बंधाबंधभेदमं माडदे प्रथमवर्णनमक्कुं । द्वितीयदोळायुर्व्वधावंधभेददोडने भंगसहितमार्गि प्ररूपणमक्कुमल्लि प्रथमपक्षो पेदपरु :--- सव्वं तिगेग सव्वं चेगं छसु दोणि चउसु छद्दस य दुगे । छगदाल दोसु तिसट्ठी परिहीण पर्याडिसत्तं जाणे ॥ ३६० ॥ ५९७ सव्वं त्रिकैकं स चैकं षट्तु द्वे चतुर्षु षट् दशकं द्विके । षट् सप्तचत्वारिंशत् द्वयोस्त्रिषष्टि परिहीन प्रकृतिसत्वं जानीहि ॥ मियादृष्टियोळु सव्यं तूर नात्वते प्रकृतिसत्वमक्कुं । सासादननोळ तीर्थमुमाहारक - १० द्विकमेब त्रिहीनस प्रकृतिसत्वमत्रकुं । मिश्रनोळ, तीत्थंरहितमागि सप्रकृतिसत्वमकुं । असंयतनळ, सव्र्व्वं नूरनात्वत्तेढुं प्रकृतिसत्यमक्कुं । देशसंयतनोळ एकं नरकायुष्यं रहितमागि सर्व्वप्रकृतिसत्वमक्कुं । षट्सु द्वे प्रमत्ताप्रमत्तरुगळु मुपशलका पूर्व करणानिवृत्तिकरण सूक्ष्म सांपरायोपांत कषाय बारुं गुणस्थानंगळोळ प्रत्येकं नरकतिर्य्यगायुष्य में बेरडु प्रकृतिहीनसय्वंप्रकृतिसत्वमक्कुं । चतुर्षु षट् मत्तमुपशमका पूर्व्वानिवृत्तिसूक्ष्मसां परायोपशांतकषायर ब नाकुं १५ आयुबंधा बंधभेदमकृत्वा प्रथमं वर्णनं भवति । द्वितीयस्मिन्नायुबंधा बंषभेदेन सह भंगसहितं प्ररूपणं भवति ।। ३५९ ।। तत्र प्रथमपक्षे प्राह मिथ्यादृष्टौ सत्त्वं सर्वमष्टचत्वारिंशच्छतं । सासादने तदेव तीर्थाहारकद्विकहीनं । मिश्र तीर्थहीनं । असंयते सवं । देशसंयते नरकायुर्हीनं । प्रमत्तादिषु षट्सु नरकतिर्यगायुर्हीनं । पुनरपूर्वकरणादिषु चतुर्षु Jain Education International ५ २० किन्तु भंग अन्य हुआ क्योंकि प्रकृति बदल गयी है । पहले में मनुष्यायु देवायुकी सत्ता है। और दूसरे में तिर्यंचायु नरकायुकी सत्ता है । इसी प्रकार सर्वत्र अन्य अन्य प्रकृतियों की संख्या होनेसे स्थान भेद होता है । और एक ही स्थानमें कोई प्रकृति अन्य-अन्य होनेसे भंग भेद होता है || ३५८|| आगे गुणस्थानों में स्थान और भंगके भेदोंका प्रकार कहते हैं २५ आयुके बन्ध अथवा अबन्धका भेद न करके पहला वर्णन है और दूसरे वर्णन में आयुके बन्ध और अबन्धके भेदके साथ भंगसहित वर्णन है || ३५९ || उनमें से प्रथम पक्षका वर्णन करते हैं— मिथ्यादृष्टि में सत्त्व सब एक सौ अड़तालीस है । सासादन में तीर्थंकर और आहारकसे बिना एक सौ पैंतालीसका सत्त्व है। मिश्रमें तीर्थंकरके बिना एक सौ सैंतालीस का सत्व है । असंगत में सब एक सौ अड़तालीसका सत्व है । देशसंयत में सरकायुके बिना एक ३० सौ सैंतालीसका सत्व है । प्रमत्त आदि छह गुणस्थानों में उपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा नरकायु तिचा के बिना एक सौ छियालीसका सत्व है । पुनः अपूर्वकरण आदि चार गुणस्थानों में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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