Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 625
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्व प्रदीपिका ओघं देवेण हि णिरयाऊ सारोति होदि तिरियाऊ । भवणतियक्कप्पवासियइत्थीसु ण तित्थयरसत्तं ॥ ३४८ ॥ ओघो देवेन हि नरकायुः सहस्रारपर्यंतं भवति तिर्य्यगायुः । भवनत्रयकल्पवासिस्त्रीषु न तीर्थकर सत्वं ॥ देवगतिय सौधर्मादिसहस्रारकल्पपर्यंतं द्वादश कल्पंगळोळु योग्यसत्वप्रकृतिगळु नरकायुब्र्वज्जित मागि सामान्यसत्यप्रकृतिगळ नूरनात्वत्तेनुं योग्यंगळ १४७ । अल्लि मिथ्यादृष्टियो तत्थं सत्यम कदोडे 'किण्ह दुग सुह तिलेस्सिय बामे विण तित्थयरसत्तमें ब नियममुंटपुर्दारवं सत्यंग तूर नाश्वत्तारु १४६ । असत्व १ । सासादननोलु तीर्थंकरमुमाहारकद्विकमुमसत्वमकुं ३ । सत्प्रकृतिपळु नूर नालबत्तनात्कु १४४ । मिश्र गुणस्थानदोळ तीर्थमसत्वमक्कुं १ । सत्यंग तूर नात्वत्तारु १४६ | असंयतगुणस्थानदो नूर नात्वत्तेळु सत्वमक्कु १० १४७ | मसत्यं शून्यं । संदृष्टि :-- सौधर्मादिकल्प योग्य १४७ । मि सा मि अ १४६ १४४ १४६ १४७ १ ३ १ ० ५७५ व्यु स अ Jain Education International आनतादि चतुःकल्पंगळोळं नवग्रैवेयकंगळोळं नरकतिर्य्यगायुर्द्वयरहितमागि सत्वयोग्यंगळु नूर नाल्वत्तारु प्रकृतिगळप्पु १४६ । अल्लि मिथ्यादृष्टियोळ तीर्थमसत्वमक्कुं १ । सत्वं नूर देवगत ओघः किंतु नरकायुर्नहि पुनः सहस्रारपर्यंतमेव तिर्यगायुरस्ति न तत उपरि, तेन सौधर्मादिसहस्रारपर्यंतं द्वादशकल्पेषु सत्त्वं सप्तचत्वारिंशच्छतं । तत्र मिध्यादृष्टौ तीर्थं न 'किण्हदुगसुहतिलेस्सय १५ वामेवि ण तित्ययरसत्त' मिति नियमात् सत्त्वं षट्चत्वारिशच्छतं, असत्त्वमेकं । सासादने तीर्थाहारा असत्त्वं । सत्त्वं चतुश्चत्वारिंशच्छतं । मिश्रे तीर्थमसत्वं सत्त्वं षट्चत्वारिंशच्छतं । असंयते सत्त्वं सप्तचत्वारिंशच्छतं, असत्त्वं शून्यं । आनतादिचतुः कल्पेषु नवग्रैवेयकेषु च नरकतिर्यगायुषी नेति सत्त्वं षट्चत्वारिंशच्छतं । तत्र मिथ्या दृष्टा देवगतिमें नरकायका सत्त्व नहीं है तथा सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त ही तिचायुका सत्व २० रहता है | अतः सौधर्मसे लेकर सहस्रार पर्यन्त बारह स्वर्गो में सत्त्व एक सौ सैंतालीस । वहाँ मिथ्यादृष्टि में तीर्थंकरका सत्त्व नहीं होता; क्योंकि ऐसा नियम है कि कृष्ण, नील तथा तीन शुभलेश्या में मिध्यादृष्टि गुणस्थान में तीर्थंकरका सत्व नहीं होता । अतः सत्व एक सौ छियालीस । असत्त्व एक । सासादन में तीर्थंकर और आहारकद्विकका असत्व, सत्त्व एक सौ चवालीस | मिश्र में तीर्थंकरका असत्त्व. सत्त्व एक सौ छियालीस । असंयत में सत्त्व एक २५ सौ सैंतालीस असत्त्व शून्य । आनत आदि चार स्वर्गो में और नौ ग्रैवेयकों में नरकायु तिर्यंचायुका सत्त्व न होनेसे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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