Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
View full book text
________________
गो० कर्मकाण्डे मूलुत्तरपयडीणं णामादि चउव्विहं हवे सुगमं ।
वज्जित्ता णोकम्मं णोआगमभावकम्मं च ॥६८॥ मूलोत्तरप्रकृतीनां नामावि चतुम्विधं भवेत्सुगमं । वज्जित्वा नोकर्म नोआगमभाव कर्म च ॥
ज्ञानावरणाद्यष्टविधमूलप्रकृतिगळगं मतिज्ञानावरणाद्युत्तरप्रकृतिगळगं नामाविचतुःप्रकारं सुगममक्कुमल्लि नोकर्ममुं नोआगमभावकर्ममुमेंबरडं वज्जिसि शेषमनितुं सामान्यकथनमें तंतेयप्पुरिदं सुगममक्कुमा नोकर्म नोआगमभावकमंगळं मूलप्रकृतिगळेगमुत्तरप्रकृतिगळेग योजिसिदपरदेंते दोड:
पडपडिहारसिमज्जा आहारं देह उच्चणीचंगं ।
भंडारी मूलाणं णोकम्मं दवियकम्मं तु ॥६९॥ पटप्रतिहारासिमद्याहारदेहोच्चनीचांग । भांडागारी मूलानां नोकर्म द्रव्यकर्म तु॥
ज्ञानावरणक्के श्लक्ष्णकांडपटं नोकर्मद्रव्यमक्कुमदुर्बु ज्ञानावरणवंते वस्तुविशेषप्रतिपत्तिप्रतिबंधकमप्पुरिदं ॥
दर्शनावरणक्के द्वारनियुक्तप्रतिहारं नोकर्मद्रव्यकर्ममुमक्कुमातंर्ग दर्शनावरणदत वस्तु१५ सामान्यग्रहणप्रतिबंधकत्वगुंटप्पुरिदं ॥ वेदनीयकर्मक्क मधुलिप्तासिधारे नोकर्मद्रव्यकर्ममक्कु
मदुर्बु विषयानुभवनदोळ सुखदुःखंगळं वेदनीयमें तु माळकुमंते सुखदुःखकारणमप्पुरिदं। मोहनीयकर्मक्के मद्यं नोकमद्रव्यकर्ममक्कुमदुर्बु मोहनीयवंते सम्यग्दर्शनाविजीवस्वभावमं पत्तुविडिसि
मूलप्रकृतीनां उत्तरप्रकृतीनां च नामादिचतुर्विधं सुगमं भवति । तत्र नोकर्म नो आगमभावकर्मेति द्वयं वजित्वा शेषस्य सामान्यवत् कथनात् ॥६८॥ तन्नोकर्मनोआगमभावकर्मणी मूलोत्तरप्रकृतीषु योजयति२० तत्र ज्ञानावरणस्य नोकर्मद्रव्यकर्म श्लक्ष्णकाण्डपटो भवति विशेषग्रहणप्रतिबन्धकत्वात् । दर्शनावरणस्य द्वारनियुक्तप्रतीहारः सामान्यग्रहणविराधकत्वात् । वेदनीयस्य मधुलिप्तासिधारा सुखदुःखकारणत्वात् । मोह
मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृतियों के नामादि चारों भेद सुगम हैं। किन्तु नोकर्म और नोआगम भावकर्मको छोड़कर शेषका कथन सामान्य कमके समान जानना। आशय यह है
कि पहले द्रव्यनिक्षेपके दो भेद किये थे-आगम और नोआगम । नोआगम द्रव्यके तीन २५ भेद कहे थे-ज्ञायक शरीर, भावि और तद्व्यतिरिक्त। उनमें से तद्वयतिरिक्तके दो भेद कहे
थे-कर्म और नोकर्म । सो यहाँ नोकर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्यकर्मका वर्णन सब प्रकृतियोंमें करते हैं। जिस-जिस प्रकृतिका जो-जो उदय फलरूप कार्य है उस-उस कार्यमें जो बाह्यवस्तु निमित्त होती है उस वस्तुको उस प्रकृतिका नोकर्म द्रव्यकर्म कहते हैं ।।६८॥
मूल और उत्तर प्रकृतियोंमें नोकर्म और नोआगम भावकर्मकी योजना करते हैं
ज्ञानावरणका नोकर्मद्रव्यकर्म घने वस्त्रका परदा है क्योंकि वह विशेष रूपसे वस्तुको ग्रहण करने में बाधक होता है। दर्शनावरणका नोकर्म द्रव्यकर्म द्वारपर नियुक्त द्वारपाल है क्योंकि वह सामान्य रूपसे भी देखने में बाधक होता है। वेदनीयका नोकर्म द्रव्यकर्म मधुसे लिप्त तलवारकी धार है क्योंकि उसको चाटनेसे सुख और पुनः दुःख होता है । मोहनीयका
३०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org