Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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१२२
गो० कर्मकाण्डे सादिबंधम वुमनाविबंध दुं ध्रुवबंधर्म दुमध्रुवबंध दितु प्रकृतिबंध चतुविधमक्कुमवरोळु ज्ञानावरणीयं वर्शनावरणीयं मोहनीयं नाम गोत्रमंतरायम ब मूलप्रकृतिषट्कक्के 'प्रत्येकं साद्यनादि ध्रुवाध्रुवबंधचतुष्टयमुमक्कुं। तृतीयं वेदनीयं । साविशेषं सादिबंधदत्तणिदं शेषानाविध्रव अध्रुवबंधभेदंगळनु वक्कुं। एतेंदोडे सातवेदनीयापेक्षेयिदं वेदनीयक्के सादित्वमिल्लेके दोडे गुणप्रतिपन्नरोळमुपशमश्रेण्यारोहणावरोहणवोळं सातवेदनीयबंधमविच्छिन्नरूपदिदं सयोगगुणस्थानपर्यंत बंधमुंटप्पुरिवं । अनादिवशेषमायुः आयुष्यमनादिप्रवबंधद्वयदत्तणिवं शेषसाद्यध्रुवबंधंगळनुदक्कुमेके दोउ उत्तरभववायुष्यमनोम्म मोदलगोंडु कटुगुमप्पुरवं। सादिबंधमनुळ्ळुदुमक्कुं अंतर्मुहूर्त्तकालावसानबंधमनुळ्ळ दुमप्पुरिदं अध्रुवबंधमुमनुमदुमक्कुं
णा। दं। वे । मो। आ। ना । गो। अं। ४। ४।३। ४।०।४।४।४
अनंतरं सादिबंधाविगळ्गे लक्षणमं पेळ्दपरु ।
सादी अबंधबंधे सेढि अणारूढगे अणादी हु।
अब्भवसिद्धम्मि धुवो भव सिद्धे अधुवो बंधो ॥१२३॥ सादिरबंधबंधे श्रेण्यनारूढे अनाविस्तु । अभव्यसिद्धे ध्रुवो भव्यसिद्धेऽध्रुवो बंधः॥
सादिः सादिबंध बुदु । अबंधबंधे कट्टदिद? कट्टिदल्लियपकुमते दोडे इवक्कुदाहरणं तोरल्पडुगुं । ज्ञानावरणीयपंचकमं सूक्ष्मसांपरायं तम गुणस्थानचरमसमयदोळकट्टि उपशांतकषायनागि
सादिः अनादिः ध्र वः अध्र वश्चेति प्रकृतिबन्धश्चतुर्धा । तत्र ज्ञानदर्शनावरणमोहनीयनामगोत्रांतरायाणां प्रत्येकं चतुर्धा बन्धो भवति । वेदनीयं सादितः शेषत्रिविधो बन्धो भवति । सातापेक्षया तस्य गुणप्रतिपन्नेषु उपशमश्रेण्यारोहणावरोहणे च निरन्तरबन्धेन सादित्वासंभवात् । आयुः अनादिध्र वाम्यां शेषद्विविधबन्धो भवति एकवारादिना बन्धेन सादित्वात् अन्तर्मुहूर्तावसाने च अध्र वत्वात् ॥१२२॥ अथ तान् बन्धान् लक्षयति
सादिबन्धः अबन्धपतितस्य कर्मणः पुनर्बन्धे सति स्यात्, यथा ज्ञानावरणपञ्चकस्य उपशान्तकषायाद
प्रकृतिबन्धके चार भेद है-सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, नाम, गोत्र, अन्तराय इनमें से प्रत्येकका बन्ध चार प्रकार है। वेदनीयकर्मका सादिबन्ध नहीं है, शेष तीन बन्ध होते हैं। क्योंकि ऊपरके गुणस्थानोंमें वर्तमान जीवोंके
उपशम श्रेणि आदिपर चढ़ने और उतरनेपर साताकी अपेक्षा वेदनीयका निरन्तर बन्ध २५ होता रहता है अतः वेदनीयका सादिबन्ध सम्भव नहीं है। आयुका अनादि और ध्रुवके बिना शेष दो बन्ध होते हैं क्योंकि आयु एक पर्याय में एक बारसे आठ बार तक बँधती है अतः सादि है और आयुका बन्ध एक बार में अन्तमुहूतकाल पर्यन्त ही होता है । अतः अध्रुव है ॥१२२॥
_ उन बन्धोंके लक्षण कहते हैं३० जिस कर्मका अबन्ध होकर बन्ध होता है उसके बन्धको सादि कहते हैं। जैसे
ज्ञानावरणकी पाँच प्रकृतियोंका बन्ध सूक्ष्म साम्पराय पर्यन्त होता है अतः उपशान्त कषायमें
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