Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 490
________________ ४४० गो० कर्मकाण्डे एदेण कारणेण दु सादरसेव दु णिरंतगे उदओ। तेणासादणिमित्ता परीसहा जिणवरे णत्थि ॥२७॥ एतेन कारणेन तु सातस्यैव तु निरंतरोदयः। तेनासातनिमित्ताः परीषहा जिनवरे न संति ॥ इदु कारणदिदं तु मते सातबंधमुदयात्मकमप्पुरिदं सातकेये निरंतरोदयमक्कुमदरिदम सातदुदयजनितैकादश परीषहंगळु क्षुत् पिपासा शीत उष्ण दंश मशक चा शय्या वध रोग तृणस्पर्शमलमें बिवु जिनवरे न संति जिनस्वामियोळु घर्सियसवु। अंतादोडकादश जिने 'वेदनोये शेषा' येंदु असातवेदनीयोदयसंभूतकादश परीषहंगळ जिनरोळे ते दोडे घादिव्व वेयणीयं मोहस्स बळेण घाददे जीवं ये बो वादिदं मोहनीयकर्मबलसहायरहित वेदनीयं फलवंतमले दितुमेका१. दशपरोषहंगळं जिगवरे गत्थि येबी वाक्यविशेषदिदमु निश्चयनयदिदं जिनरोळो दुं परीषहमिल्लो दुटु कारणभूतासातवेदनोयोदयसद्भावदिदमुपचारदिदं कार्यरूपमप्प परीषहास्तित्वं ॥ अनंतरमभेदविवक्षेयिंदमुदयप्रकृतिगळु नूरिप्पत्त रडु १२२। मिध्यादृष्टियागि चतुर्दशगुणस्थानंगळोळ संभवंगळु पेळल्पडुगुमदेते दोडे -मिथ्यादृष्टियोळुदयप्रकृतिगळु नूर हदिनेळु ११७ । अनुदयंगळु तीर्थमुमाहारद्वयमु सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियुं सम्यक्त्वप्रकृतियुमें दिवय्दु ५। १५ सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळु मिथ्यादृष्टिव्युच्छित्तिगळयदुगुडिदनुदयप्रकृतिगळु पत्त नरकम सासादनं पुगनप्पुरिदं नरकानुपूयं मुसहितमागि पन्नोंदु ११ । उदयप्रकृतिगळु नूर पन्नोंदु १११। मिश्रगुणस्थानदोळो भत्तुगुडिदनुदयप्रकृतिगळिप्पत्तुं शेषानुपूव्यंगळ मूरुं कूडिप्पत्त एतेन उक्तकारणेन तु पुनः सातस्यैव निरंतरोदयः स्यात् । तेनासातोदयजनिताः परीषहाः क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्याशय्यावधरोगतृणस्पर्शमलाख्या जिनवरे न संति । 'एकादश जिने' 'वेदनीये शेषाः' इति २० सूत्रेणापि कारणे कार्योपचारेणवोक्तत्वात् मुख्यतस्तेषामभावात् । ___ अथाभेदविवक्षया उदये द्वाविंशत्युत्तरशतं १२२ । तत्र मिथ्यादृष्टावुदयः सप्तदशोत्तरशतं, अनुदयः तीर्थकरत्वाहारकद्वयसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वप्रकृतयः पंच । सासादने पंच नारकानुपूव्यं च मिलित्वा अनुदयः परिणमन करता है, ऐसा कहना शक्य नहीं; क्योंकि ऐसा कहनेसे साताका स्थितिबन्ध दो समय मानना होगा । अन्यथा असाताका ही बन्ध प्राप्त होगा ।।२७४।। उक्त कारणसे केवलीके निरन्तर साताका ही उदय रहता है। अतः असाताके उदयसे २५ उत्पन्न होनेवाली क्षुधा, प्यास, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल परीषह केवलीमें नहीं होती। तत्त्वार्थ सूत्र में भी जो 'एकादश जिने' 'वेदनीये शेषाः' --ऐसा कहा है वह कारणमें कार्यका उपचार करके ही कहा है। मुख्यरूपसे उनका केवलीमें अभाव है। अभेद विवक्षासे उदय प्रकृतियाँ एक सौ बाईस हैं। उनमें से मिथ्यादृष्टि में उदय एक सौ सतरह ११७, अनुदय तीर्थकर, आहारकद्विक, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति पाँच । सासादनमें उक्त पाँचमें पाँच व्युच्छित्ति और एक नरकानुपूर्वी मिलकर अनुदय ग्यारहका ११, उदय एक सौ ग्यारहका। और उदय व्युच्छित्ति नौ। अतः ११+९ ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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