Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 582
________________ ५३२ गो० कर्मकाण्डे तिर्यगानुपूर्व्यमुमेरडु मुदयव्युच्छित्तिगळप्पुवंतागुत्तं विरला कपोतलेश्यासंयतसम्यग्दृष्टिप्रथमपृथ्वियोळ पुटुवनप्पुरिदं द्वितीयकषायचतुष्कमुं ४ नरकद्विकमु २ वैक्रियिकद्विक, २ नारकायुष्य, १ तिय्यंगानुपूठव्यं, १ दुभंगत्रय, ३ मनुष्यानुपूठय॑मुमंतु पदिनाल्कुं प्रकृतिगगुक्यव्युच्छित्तियक्कु दिंतु पेळल्पटुदप्पुरिदं । अनंतरं शुभलेश्यात्रयमार्गणेयोदययोग्यप्रकृतिगळं पेळ्वपरु : तेउतिए सगुणोघं णादाविगिविगल थावरचउक्कं । णिरयदुतदाउतिरियाणुगं णराणू ण मिच्छदुगे ॥३२७।। तेजस्त्रये स्वगुणौधः नातापैकविकलस्थावरचतुष्कं । नरकद्वयतदायुस्तिय्यंगानुपूव्यं नरानुपूव्यं न मिथ्यादृष्टिद्विके ॥ तेजःपद्मशुक्ललेश्यात्रयमार्गयोळ स्वगुणौधमक्कुमल्लियातपनाममुं १ एफेंद्रियजातियुं १ विकलत्रयमुं ३ स्थावरमुं १। सूक्ष्ममुं १ अपर्याप्तमुं १ साधारणशरीरमुं १ नरकद्विकमुं २। नरकायुष्यमुं १। तिर्यगानुपूज्य मुं १ यिंतु पदिमूरुं प्रकृतिगळं कळदु शेष नूरों भत्तुं प्रकृतिगळु. दय योग्यंगळप्पुवल्लि। तेजःपनलेश्यामार्गणाद्वयवोळु तीर्थमं कळेदु योग्यप्रकृतिगळ नूरेंटु १३ । एवं कपोतलेश्यायामपि एकान्नविंशतिशतमुदययोग्यं भवति ११९ । तदसंयते गुणस्थाने नरकतिर्यगानु१५ पूर्ये व्युच्छित्तिरेवं सति तदसंयतप्रथमपृथ्व्यामुत्पद्यते तेन द्वितीयकषायचतुष्कं नरकद्विकर्व क्रियिकद्विकं नारकायुस्तिर्यगानुपूयं दुर्भगत्रयं मनुष्यानपूयं चेति चतुर्दश व्युच्छित्तिरित्युक्तं ॥३२६॥ अथ शुभलेश्यात्रयस्याह तेजःपद्मशुक्ललेश्यासु स्वगुणोघः। तत्रातप एकेद्रियं विकलत्रयं स्थावरं सूक्ष्ममर्याप्तं साधारणं नरकद्विकं तदायुस्तियंगानुपूयं च नेति नवोत्तरशतमुदययोग्यं भवति । तेत्रापि तेजःपद्मयोस्तीर्थकरत्वं नेत्यष्टोत्तरशतं इसी प्रकार कापोत लेश्यामें भी उदययोग्य एक सौ उन्नीस ११९ हैं। वहाँ असंयत २० गुणस्थानमें नरकानुपूर्वी और तियंचानुपूर्वीकी व्युच्छित्ति होती है। ऐसा होनेपर कापोत लेश्यावाला असंयत प्रथम नरकमें उत्पन्न होता है अतः दूसरी कषाय चार, नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु, वैक्रियिकद्विक, तिर्यंचानुपूर्वी, दुर्भग आदि तीन और मनुष्यानुपूर्वी इन चौदहकी व्युच्छित्ति कही है ॥३२६।। कृष्णनील रचना ११९ कापोत रचना ११९ | | मि. सा. | मि. | अ. | | | मि. सा. | मि. अ. | | व्यु. ६ १३ | २ | १२ | | उदय ११७ १११ ९८ ९९ उदय ११०/ ११२ २८ १०१ | अनु. २| ८|२११८ आगे तीन शुभ लेश्याओंमें कहते हैं तेज, पद्म और शुक्ल लेश्यामें अपने गुणस्थानवत् जानना। उनमें आतप, एकेन्द्रिय, विकलत्रय, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु और तिर्यंचानुपूर्वीका उदय न होनेसे उदययोग्य एक सौ नौ हैं। उनमें भी तेजोलेश्या और पन अनुदया २ २५ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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