Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
View full book text
________________
२०२
अध्रुवप्रकृतिगळ ७३ त्रिसप्ततिप्रकृतिगळ जघन्याजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टानुभागबंधंगळं द्विषा साद्यध्रुव
भेर्दाददं द्विविधंगळवु -
ध्रु
-Я
८
उ २
अ ४
अ २
ज २
गो० कर्मकाण्डे
Jain Education International
ध्रु = अप्र
४३
उ २
अ २
अ ४
ज २
अनंत रमनुभाग में बुदेने दोडे तत्स्वरूपनिरूपणमं घातिकम्मंगळोळ माडिदपरु :
सत्ती य लदादारू अट्ठीसेलोवमाहु घादीणं ।
दारुणंतिम भागोत्ति देमघादी तदो सव्वं ॥ १८० ॥
शक्तयो लतादावं स्थिशैलोपमाः खलु घातीनां । दायंनंतैकभागपय्र्यंतं देशघाति ततः सर्व्वम् ॥
घातीनां ज्ञानावरणदर्शनावरण मोहनीयान्तरायघातिकम्मंगळ शक्तयः स्पर्द्धकंगळु लतादार्थः स्थिरौलोपमाः लतादार्व्वस्थिशैलोपमानंगळ चतुव्विभागमागिवु । खलु स्फुट मागि वुमल्लि १० दार्व्यनन्तैकभागपय्र्यन्तं लताभागमादियागि दारुभागे योळनंतैकभागपध्यंतं वेशघाति देशघाति
ध्रुव ८ प्र.
उ. २
अ. ४
अ. २
ज. २
तासां जघन्यादयः अत्र वत्रिसप्ततेर्जघन्यादयश्च साद्यघ्रवभेदाद् द्विधैव ।। १७९ ।। अनुभागः किमिति प्रश्ने तत्स्वरूपं प्रथमतः घातिष्वाह
घातिनां ज्ञानदर्शनावरणमोहनीयान्तरायाणां शक्तयः स्पर्धकानि लतादार्वस्थिशैलोपम चतुर्विभागेन तिष्ठन्ति खलु स्फुटम् । तत्र लताभागमादि कृत्वा दार्वनन्तकभागपर्यन्तं देशघातिभ्यो भवन्ति । तत उपरि १५ प्रकार है । इन ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंके शेष तीन अनुभागबन्ध और अध्रुवबन्धी ७३ तेहत्तर प्रकृतियोंके चारों अनुभागबन्ध सादि और अध्रुव के भेदसे दो ही प्रकार हैं ।। १७९ ||
अघु प्र. ७३
उ २
अ २
अ २
ज २
ध्रु. ४३ अ.
उ. ५
अ. २
अ. ४
ज. २
आगे अनुभागका स्वरूप प्रथम घातिकमों में कहते हैं
घाति ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मोंकी शक्तियाँ अर्थात् स्पर्धक लता, दारु, अस्थि और शैलकी उपमाको लिये हुए चार भागरूप होते हैं | लता बेलको २० कहते हैं । दारुका अर्थ काष्ठ है । अस्थि हड्डीको कहते हैं और शैल पर्वतको कहते हैं । जैसे ये उत्तरोत्तर अधिक कठोर होते हैं वैसे ही कर्मोंके स्पर्धक अर्थात् वर्गणाओंका समूह भी होता है । उनमें फल देनेकी शक्ति रूप अनुभाग उत्तरोत्तर अधिक अधिक होता है। सो लता भागसे लेकर दारुके अनन्तवें भाग पर्यन्त स्पर्धक तो देशघाती होते हैं। उनके उदय
अध्रुव ७३
उ. २
अ. २
अ. २
ज. २
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org