Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० जीवकाण्डे
योळकूडुत्तिरलु रूपाधिककांडकघनमक्कुमदरात्मप्रमाणमनोंदु रूपं चतुरंकसंख्ययोळकूडुत्तिरलु रूपाधिककांडकंगळ घनमुं रूपाधिककांडकगुणमक्कुमदरात्मप्रमाणमनोंदु रूपं तंदुवकसंख्ययोळु रूपाधिककांडचतुष्टयक्क रूपाधिककांडकचतुष्टयम तोरि तोरलिल्लद कांडकदोळकूडुत्तिरलु रूपाधिककांडकदवर्गदघनद संवर्गप्रमाणमक्कुमद नंबुवुदेके दोडे जिनैन्निद्दिष्टं जिनोक्तत्वात जिनप्रणीतमपुरिदमिंद्रियज्ञानागोचरमप्पुरिदमा गुणकारंगळं गुणिसिद लब्धं घनांगुलासंख्यातभागमादोडं ६ घनांगलसंख्यातमादोडं ६ घनांगुलप्रमितमादोडं ६ संख्यातधनांगुलप्रमितमादोड ६१ मसंख्यातघनांगुलप्रमितमादोड ६। स्मदादिगळगव्यक्तमिप्पुरिदं ।
काण्डकवर्गो भवति । तदात्मप्रमाणैकरूपे पञ्चाङ्कसंख्यायां काण्डकगणितरूपाधिककाण्डकवर्गप्रमितायों युते सति
रूपाधिककाण्डकघनो भवति । तदात्मप्रमाणेकरूपे चतुरङ्कसंख्यायां काण्डकगणितरूपाधिककाण्डकघनप्रमितायां १० युते सति रूपाधिककाण्डकवर्गस्य वर्गो भवति । तदात्मप्रमाणैकरूपे उर्वङ्कसंख्यायां काण्डकगुणितरूपाधिकं
काण्डकवर्गस्य वर्गप्रमितायां रूपाधिककाण्डकचतुष्टयेन रूपाधिककाण्डकचतुष्टयं समं प्रदयं आत्मप्रमाणैकरूपे शेषकाण्डके युते सति रूपाधिककाण्डकवर्गस्य घनस्य च संवर्गप्रमाणं भवति । इदमित्थमेव प्रतिपत्तव्यम् । कुतः ? जिननिर्दिष्टमिति कारणात् इन्द्रियज्ञानगोचरत्वाभावात् तेषु । गुणकारेषु गुणितेषु लब्धं घनाङ गुलासंख्यातभागमात्रं वा ६ घनाङ्गुलसंख्यातभागमात्रं वा ६ घनाङ्गुलमात्रं वा । ६ । संख्यातधनाङ्गुलमात्र
१५ वा ६१ असंख्यातघनागुलमानं वा ६ । इत्यस्माभिर्न ज्ञायते ॥३३०॥
काण्डकका धन होता है। उसमें चतुरंकोंकी संख्या जो काण्डकसे गुणित रूपाधिक काण्डकके घन प्रमाण है, मिलानेपर रूपाधिक काण्डकके वर्गका वर्ग होता है। उवकोंकी संख्या काण्डकसे गुणित रूपाधिक काण्डकके वर्गके वर्ग प्रमाण है । इसमें शेष काण्डकोंको जोड़नेपर रूपाधिक काण्डकके वर्गका तथा घनका गुणा करनेपर जो प्रमाण होता है,उतना होता है।
विशेषार्थ-एक अधिक सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागको दो जगह रख परस्पर में गुणा करनेसे जो परिमाण होता है , वह रूपाधिक काण्डकका वर्ग है और एक अधिक सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागको तीन जगह रख परस्पर में गुणा करनेसे जो प्रमाण होता है,वह रूपाधिक काण्डकका घन है। इस वर्गको और घनको परस्परमें गुणा करनेपर जो प्रमाण होता है,
उतनी बार एक षट्स्थानमें अनन्त भागादि वृद्धियाँ होती हैं। जैसे पहले अंक संदृष्टि में आठका २५ अंक एक बार लिखा और सातका अंक दो बार लिखा। दोनों मिलकर तीन हुए। छहका
अंक छह बार लिखा। मिलकर तीनका वर्ग नौ हए। पाँचका अंक अठारह बार लिखा। मिलकर तीनका घन सत्ताईस हुए। चारका अंक चौवन बार लिखा। मिलकर तीनसे गुणित तीनका घन ३४ २७८१ इक्यासी हुए। उर्वक एक सौ बासठ लिखे। मिलकर तीनके वगसे
गुणित तीनका घन ९४ २७ = २४३ दो सौ तैंतालीस हुए। अंक संदृष्टिमें काण्डकका प्रमाण ३० दो है। यथार्थमें सूच्यंगलका असंख्यातवाँ भाग है।
इसको इसी प्रकार जानना,क्योंकि जिन भगवान्ने ऐसा कहा है। यह इन्द्रिय ज्ञानका विषय नहीं है । अतः उन गुणाकारोंसे गुणा करनेपर लब्ध घनांगुलका असंख्यातवाँ भाग मात्र है, अथवा घनांगुलका संख्यातवाँ भाग है, अथवा धनांगुल मात्र है अथवा असंख्यात घनांगुल मात्र है,यह हम नहीं जानते ॥३३०।।
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