Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० जीवकाण्डे संकमणं सट्ठाणपरट्ठाणं होदित्ति किण्हसुक्काणं ।
वड्ढीसु हि सट्टाणं उभयं हाणिम्मि सेसउभयेवि ॥५०४॥ ___ संक्रमणं स्वस्थानं परस्थानं भवति। कृष्णशुक्लयोः। वृद्धचोः खलु स्वस्थानमुभयं हानौ शेषोभयेपि ॥
संक्रमणं स्वस्थानसंक्रमण दु परस्थानसंक्रमणमें दुं द्विप्रकारमक्कुमल्लि कृष्णशुक्लयोः कृष्णशुक्ललेश्याद्वयद वृद्धयोः वृद्धिगळोळु स्वस्थानसंक्रमणमेयक्कुं खलु नियदिदं । आकृष्णशुक्ललेश्यगळु हानी हानियोळु उभयं स्वस्थानसंक्रमणमुं परस्थानसंक्रमणमुम बरडुमक्कुं। शेषोभयेपि शेषनीलपद्मकपोततेजोलेश्याचतुष्टयंगळु हानियोळं वृद्धियोळं अपि अपिशब्ददिदं स्वस्थानसंक्रमणमुं परस्थानसंक्रमणमुमें बेरडुमक्कुं॥
लेस्साणुक्कस्सादो वरहाणी अवरगादवरवड्ढी ।
सट्ठाणे अबरादो हाणी णियमा परट्ठाणे ॥५०५॥ लेश्यानामुत्कृष्टादवरहानिरवरस्माववरवृद्धिः, स्वस्थाने अवरस्माद्धानिनियमात्परस्थाने॥
संक्रमणं-स्वस्थानसंक्रमणं परस्थानसंक्रमणं चेति द्विविधम् । तत्र कृष्णशुक्ललेश्याद्वयस्य वृद्धी स्वस्थानसंक्रमणमेव खलु-नियमेन, हानी पुनः स्वस्थानसंक्रमणं परस्थानसंक्रमणं 'चेत्युभयं भवति । शेषनीलपद्मकपोत१५ तेजोलेश्याचतुष्टयस्य हानौ वृद्धौ च अपिशब्दादुभयसंक्रमणं भवति ॥५०४॥
संक्रमणके दो प्रकार हैं-स्वस्थान संक्रमण और परस्थान संक्रमण । उनमें से कृष्णलेश्या और शुक्ल लेश्याका वृद्धि में नियमसे स्वस्थान संक्रमण ही होता है। हानिमें स्वस्थान और परस्थान दोनों होते हैं। शेष नील, कापोत, तेज, पद्म लेश्याओंमें हानि और वृद्धि में दोनों संक्रमण होते हैं ॥५०४॥
विशेषार्थ-एक स्थानसे दूसरे स्थानमें जानेको संक्रमण कहते हैं। यदि वह उसी २०
लेश्यामें होता है, तो स्वस्थान संक्रमण है और यदि एक लेश्यासे दूसरीमें होता है, तो परस्थान संक्रमण है। वृद्धि में कृष्ण और शुक्ल लेश्या में स्वस्थान संक्रमण ही होता है। क्योंकि संक्लेशकी वृद्धि कृष्ण लेश्याके उत्कृष्ट अंश पर्यन्त ही होती है तथा विशद्धिकी वृद्धि शक्ल लेश्याके उत्कृष्ट अंश तक ही होती है। अतः जो जीव कृष्ण लेश्या या शुक्ल लेश्या में वर्तमान है, वह संक्लेश या विशुद्धिकी वृद्धिमें उन्हीं लेश्याओंके उत्कृष्ट अंशमें जायेगा। किन्तु हानिमें दोनों संक्रमण होते हैं। क्योंकि उत्कृष्ट कृष्ण लेश्यासे संक्लेशकी हानि होनेपर उसी लेश्याके उत्कृष्टसे मध्यममें और मध्यमसे जघन्य अंशमें आता है और जघन्य अंशसे भी हानि होनेपर नील लेश्यामें चला जाता है। इसी तरह विशुद्धिकी हानि होनेपर शुक्ल लेश्याके उत्कृष्ट अंशसे मध्यममें और मध्यमसे जघन्य अंशमें आता है। तथा और भी हानि
होनेपर पद्म लेश्यामें जाता है। इस तरह हानिमें दोनों संक्रमण होते हैं । शेष मध्यकी चारों ५० ही लेश्याओंमें हानि-वृद्धि दोनोंमें ही दोनों संक्रमण होते हैं ॥५०४॥
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