Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 428
________________ गो० जीवकाण्डे वरि य सुक्का लेस्सा सजोगिचरिमोत्ति होदि नियमेण । जो गिम्मि वि सिद्धे लेस्सा णत्थिति णिहिंदूं || ६९३ || विशेषोस्ति शुक्ललेश्या सयोगचरमपय्र्यंतं भवति नियमेन । गतयोगेऽपि सिद्धे लेश्या न संतीति निर्दिष्टं । ५ शुक्लेश्यो विशेषमुंटावुदे दोडे शुक्ललेश्यासंज्ञिपय्र्य्याप्त मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि सयोगिकेवलिगुणस्थानपर्यंतं पदिमूरुं गुणस्थानंगळोळप्पूदें बुदल्लि संज्ञिपंचेद्रियपर्य्याप्तापर्य्याप्तजीवसमासमुं समुद्घातकेवलिय औदारिकमिश्रकाम्मंणकाययोगकालकृतापर्य्याप्तजीवसमास कूडि जीवसमासद्वयमक्कु नियर्मादिदं । कृ । नी । क । ते । प । शु गतयोगरप्प अयोगिकेवलि४ । ४ । ४ । ७ । ७ । १३ १४ । १४ । १४ । २ । २ । २ गळोळं सिद्धपरमेष्ठिगळोळं लेश्येगळिल्ल में दिंतु परमागमदोळपेळपट्टुडु । थावर काय पहुडी अजोगिचरिमोत्ति होंति भवसिद्धा । मिच्छाइट्ठिट्ठाणे अभव्वसिद्धा हवंतीति ॥ ६९४ || स्थावरकायप्रभृत्ययोगिचरमसमयपय्यंतं भवंति भव्यसिद्धाः । मिथ्यादृष्टिस्थाने अभव्य १० ९१४ सिद्धा भवतीति ॥ भव्यमार्गणेयोल स्थावरकायमिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि अयोगिकेवलिचरमगुणस्थान१५ पर्यंतं पदिनाकुं गुणस्थानंगळोळ भव्यसिद्धरुंगळप्परल्लि पदिनात्कुं जीवसमासेगळप्पुवु । अभव्यसिद्धरुगळु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमों बरोळेयप्पर । अल्लि पदिनाकं जीवसमासेगळप्पु भ १४ । १ १४ । १४ मिच्छो सास मिस्सो सगसगठाणम्मि होदि अयदादो । पढमुवसमवेदगसम्मत्त दुगं अप्पमत्तोत्ति ||६९५|| मिथ्यादृष्टिः सासादनो मिश्रः स्वस्वस्थाने भवति असंयतात्प्रथमोपशमवेदकसम्यक्त्वद्विकम२० प्रमत्तपय्यंतं ॥ शुक्ललेश्यायां विशेषः । स कः ? सा लेश्या संज्ञिपर्याप्तमिथ्यादृष्ट्या दिसयोगान्तं भवति तत्र जीवसमासौ संज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वावेव नियमेन केवल्यपर्याप्तस्य अपर्याप्ते एवान्तर्भावात् । अयोगिजिने सिद्धे च लेश्या न सन्तीति परमागमे प्रतिपादितम् ॥ ६९३ ॥ भव्य मार्गणायां भव्यसिद्धाः स्थावरकाय मिथ्यादृष्ट्याद्ययोगान्तं भवन्ति । अभव्यसिद्धाः मिध्यादृष्टिगुण२५ स्थाने एव भवन्ति इत्युभयत्र जीवसमासाश्चतुर्दश ।। ६९४ || ३० शुक्ललेश्या में विशेष है । वह संज्ञी मिध्यादृष्टि से लेकर सयोगीपर्यन्त होती है । उसमें जीवसमास संज्ञीपर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त दो ही नियमसे होते हैं । केवलिसमुद्घातगत अपर्याप्ता अन्तर्भाव अपर्याप्त में ही हो जाता है । अयोग केवली और सिद्धों में लेश्या नहीं होती, ऐसा परमागम में कहा है || ६९३ || मार्गणा भव्य स्थावरकाय मिध्यादृष्टिसे लेकर अयोगकेवली पर्यन्त होते हैं । अभव्य मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ही होते हैं। दोनोंमें जीवसमास चौदह ही होते हैं ||६९४ || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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