Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 430
________________ गो०जीवकाण्डे द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमसंयतायुपशांतकषायगुणस्थानपथ्यंतमेंटु गुणस्थानंगळोळक्कुमल्लि. युपशमश्रेण्यवरोहणदोळऽप्रमत्तप्रमत्तदेशसंयतासंयतरोळु द्वितीयोपशमसम्यक्त्वसंभवमें दरिवुदेकदोड उपशमश्रेण्यारोहणावरोहणकालमं नोडलु तदुपशमसम्यक्त्वकालं संख्यातगुणमक्कुमेत्तलानुं चारित्रावरणोदयदिवं देशसंयतासंयतरोळु पतनमुटप्पुरिदं । अल्लि संजिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासेयुं देवासंयतापर्याप्तजीवसमासेयुमितेरडु जीवसमासेगळप्पुबु । क्षायिकसम्यक्त्वमसंयतादियुमयोगिकेवलिगुणस्थानमवसानमागि पंनो हुँ गुणस्थानंगळोळप्पुदल्लि। संजिपंचेंद्रियपर्याप्तभुज्यमानजीवसमासेयुं बद्घायुष्यापेक्षयिदं धम्मॅय नारकापर्याप्तनु भोगभूमिजमनुष्यतिय्यंचासंयता. पर्याप्तरं देवासंयतापर्याप्तनु संभविसुगुमप्पुदरिनपर्याप्तजीवसमासयुमितरडुजीवसमासेगळप्पुवु। संदृष्टिरचने: मि सा मि द्वि उप्र वे क्षा गुणस्थानातीतरप्प सिद्धपरमेष्ठिगळोळं १४ ७।१ २ । १२२ १० क्षायिकसम्यक्त्वमक्कु दितु जिनस्वामिळिदं पेळल्पद्रुदु ॥ सण्णी सण्णिप्पहुडी खीणकसाओत्ति होदि णियमेण । थावरकायप्पहुडी असणित्ति हवे असण्णी दु ॥६९७॥ संज्ञी संज्ञिप्रभृति क्षीणकषायपय्यंतं भवति नियमेन । स्थावरकायप्रभृति असंज्ञिपय्यंतं ___ भवेदसंज्ञी तु॥ संज्ञिमागर्गणेयोलु संजिजीवं संज्ञिमिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि क्षीणकषायगुणस्थानपय्यंत पन्नेर९ गुणस्थानंगळोळप्पुवु अल्लि संज्ञिपचेंद्रियपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासद्वयमक्कुं। तु मत्त असंज्ञिजीवस्थावरकायमिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि पंचेंद्रियासंजिमिथ्यादृष्टिपर्यंत मिथ्या द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं असंयतायुपशान्तकषायान्तं भवति । अप्रमत्ते उत्पाद्य उपरि उपशान्तकषायान्तं गत्वा अधोवतरणे असंयतान्तमपि तत्संभवात् । तत्र जीवसमासी संज्ञिपर्याप्तदेवासंयतापर्याप्ती द्वौ । क्षायिक२० सम्यक्त्वं असंयताद्ययोगान्तम् । तत्र जीवसमासी संक्षिपर्याप्तः बद्धायुष्कापेक्षया धर्मानारकभोगभूमिनरतिर्यग्वमानिकापर्याप्तश्चेति द्वौ । सिद्धेऽपि क्षायिकसम्यक्त्वं स्यादिति जिनरुक्तम् ॥६९६॥ संज्ञिमार्गणायां संज्ञिजीवः संज्ञिमिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्तं भवति तत्र जीवसमासौ संज्ञिपर्याप्तापर्याप्ती द्वितीयोपशम सम्यक्त्व असंयतसे उपशान्तकषाय गुणस्थानपर्यन्त होता है; क्योंकि अप्रमत्त गुणस्थानमें इस द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करके ऊपर उपशान्तकषाय पर्यन्त २५ जाकर नीचे उतरनेपर असंयत पर्यन्त भी उसका अस्तित्व रहता है। उसमें जीवसमास संज्ञी'पर्याप्त तथा देव असंयत अपर्याप्त दो होते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व असंयतसे अयोगी पर्यन्त होता है। उसमें जीवसमास संज्ञीपर्याप्त होता है। किन्तु परभत्रकी आयु बाँधनेकी अपेक्षा प्रथम नरक, भोगभूमिया मनुष्य तिथंच और वैमानिक सम्बन्धी अपर्याप्त होनेसे दो होते हैं । सिद्धोंमें भी क्षायिक सम्यक्त्व जिनदेवने कहा है ॥६९६।। ३० संज्ञीमार्गणामें संज्ञीजीव संशामिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थानपर्यन्त होता है। उसमें जीवसमास संजी पर्याप्त और अपर्याप्त दो होते हैं। असंज्ञीजीव स्थावरकायसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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