Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 588
________________ १०७४ गो० जीवकाण्डे चतुर्दशगुणस्थानरहितरं चतुर्दशजीवसमासरहितरं चतुःसंज्ञारहितलं षट्पर्याप्तिरहितरं दशप्राणरहितलं सिद्धगति ज्ञानदर्शनसम्यक्त्वमनाहारमेंब मार्गणापंचकमल्लदुळिद नव मार्गणारहितरं सिद्धपरमेष्ठिगळ द्रव्यभावकमरहितरप्पुरिदं सदा शुद्धरुमप्पर। णिक्खेवे एयढे णयप्पमाणे णिरुत्तिअणियोगे । मग्गइ वीसं मेयं सो जाणइ अप्पसब्भावं ॥७३३॥ निक्षेपे एकार्थे नयप्रमाणे निरुक्त्यनुयोगे। मृगयति विंशतिभेदं स जानाति जोक्सद्भावं ॥ नामस्थापनाद्रव्यभावतो यब निक्षेपदोळ प्राणभूतजीवसत्वमें बेकायंदोळं द्रव्यात्थिकपर्यायात्थिकमेंब नयदोळं मतिश्रुतावधिमनःपव्यज्ञानकेवलमेंब प्रमाणदोळं जीवति जीविष्यति जीवितपूर्वो वा जीवः एंब निरुक्तियोळं किं कस्स केण कत्थ व केवचिरं कति विहा य भावाइ' १० एंब अनुयोगदोळं 'निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः साध्या' एंब नियोगोळं आवना नोव्वं भव्यं गुणस्थानादिविंशतिभेदमं तिळिगुमातं जीवसद्भावमनरिगुं। चतुर्दशगुणस्थानचतुर्दशजीवसमासरहिताः चतुःसंज्ञाषट्पर्याप्तिदशप्राणरहिताः सिद्धगतिज्ञानदर्शनसम्यक्त्वानाहारेभ्यः शेषनवमार्गणारहिताः सिद्धपरमेष्ठिनो द्रव्यभावकर्माभावात् सदा शुद्धा भवंति ॥७३२॥ नामादिनिक्षेपे प्राणभूतजीवसत्त्वलक्षणैकार्थे द्रव्याथिकपर्याथिकनये मतिज्ञानादिप्रमाणे जीवति १५ जीविष्यति जीवितपूर्वी वा जीव इति निरुक्ती 'किं कस्स केण कत्थवि केव चिरं कतिविहा य भावा' इति च निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः साध्या इति च नियोगिप्रश्ने यो भव्यः गुणस्थानादिविंशतिभेदान् जानाति स जीवसद्भावं जानाति ॥७३३॥ सिद्ध परमेष्ठी चौदह गुणस्थान, चौदह जीवसमास, चार संज्ञा, छह पर्याप्ति, दस प्राण इन सबसे रहित होते हैं। तथा सिद्धगति, ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व और अनाहारके २० सिवाय शेष नौ मार्गणाओंसे रहित होते हैं। और द्रव्यकर्म-भावकर्मका अभाव होनेसे सदा शुद्ध होते हैं ।।७३२॥ नामादि निक्षेपमें, एकार्थमें, द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयमें, मतिज्ञानादि प्रमाणमें, निरुक्ति और अनुयोगमें जो भव्य गुणस्थान आदि बीस भेदोंको जानता है वह जीवके अस्तित्वको जानता है । नामस्थापना द्रव्यभावनिक्षेप प्रसिद्ध है। प्राणी, भूत, जीव, १५ सत्त्व ये चारों एकार्थक हैं। इन चारोंका अर्थ एक ही है। जो जीता है, जियेगा और पूर्वमें जी चुका है, यह जीव शब्दकी निरुक्ति है-जो उसे त्रिकालव” सिद्ध करती है। जीवका स्वरूप क्या है, स्वामी कौन है, साधन क्या है, कहाँ रहता है, कितने काल तक रहता है, कितने उसके भेद हैं, इस प्रकार निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान ये अनयोग हैं। इनके उत्तरमें जो बीस भेदोंको खोजकर जानता है, उसे आत्माके ३. अस्तित्वकी श्रद्धा होती है ॥७३३॥ १. ब नियोगे यो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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