Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 463
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ९ । १२ । १५ । १८ । २१ । २४ । २७ । ३० । ३३ । ३६ । ३९ । ४२ । ४५ । ४८ । ५१ । ५४ । ५७ ॥ गुणकार ३ युति ५७० ॥ इंतु गुणस्थानंगळोळ मार्गणास्थानंगळोळं विंशतिविधं गळु योजिसल्पडुगुमददोडे : वीरमुहकमलणिग्गयसयलसुयग्गहणपयडणसमत्थं । णमिऊण गोदममहं सिद्धांतालावमणुवोच्छं ॥७२८॥ वीरमुखकमलनिर्गतसकलश्रुतग्रहणप्रकटनसमर्थं। नत्वा गौतममहं सिद्धांताळापमनुवक्ष्यामि ॥ सूत्रसूचितंगळप्प विंशतिविधंगळाळापनिरूपणे माडल्पडुवल्लि मोदळोळं गुणस्थानदिवं येळल्पडुगुमदेतेंदोडे पदिनाल्कुगुणस्थानत्तिगळं गुणस्थानातीतरुगळुमोळरु। पदिनाल्कु जीवसमासंगळनुरुमतीतजीवसमासरुगळुमोळरु षट्पर्याप्तिगळोकूडिदरुं । षडपर्याप्तियुक्तरुं १० पंचपंचपर्याप्त्यपर्याप्तियुक्तरुं। चतुश्चतुःपर्याप्त्यपर्याप्तियुक्तरुगळमोळरु । अतीतपर्याप्तरुगळुमोळरु । दशप्राण । सप्तप्राण । नवप्राण । नवप्राण । सप्तप्राण । अष्टप्राण । षट्प्राण । सप्तप्राण । पंचप्राण । षट्प्राण | चतुःप्राण। चतुःप्राण । त्रिप्राण । चतुःप्राण । द्विप्राण । एकप्राण। युतरुमतीतप्राणरुगळुमोळरु । चतुविधसंज्ञायुक्तरुं । क्षीणसंज्ञरुगळुमोळरु । चतुर्गतिजीवंगळं सिद्धगतिजीवंगळमोळरु।। एकेंद्रियादिपंचजातियुतजीवंगळु मतीतजातिगळुमाळरु । पृथ्वीकायिकादिषट्कायिकंगळुमतीतकायिकंगळुमोळरु । पंचदशयोगयुक्तरुमयोगरुगळुमोळरु । त्रिवेदिगळुमपगतवेदगळमोळरु । एकः १ । युतिः १९०। २ ४ ६ ८१० १२ १४ १६ १८ २० २२ २४ २६ २८ ३० ३२ ३४ ३६ ३८ गुणकारः २ युतिः ३८० । ३६९१२ १५ १८२१ २४२७ ३० ३३ ३६ ३९ ४२ ४५ ४८ ५१ ५४ ५७ गुणकारः ३ । युतिः ५७० ॥७२७॥ इतोऽग्रे गुणस्थानेषु मार्गणास्थानेषु च ते गुणजीवेत्यादिविंशतिभेदा २० योज्यन्ते तद्यथा तत्र गुणस्थानेषु यथा तावच्चतुर्दशगुणस्थानजीवाः तदतीताश्च सन्ति । चतुर्दशजीवसमासास्तदतीताश्च संति । षट् षट् पञ्च पञ्चचतुश्चतुः पर्याप्त्यपर्याप्ति जीवाः तदतीताश्च संति । दशसप्तनवसप्ताष्टषट्सप्तपञ्चषट्चतुश्चतुस्त्रिचतुद्वर्येकप्राणाः तदतीताश्च संति । चतुःसंज्ञाः तदतीताश्च संति । चतुर्गतिकाः सिद्धाश्च संति । होता है। इन्हें दोसे गुणा करनेपर सबका जोड़ ३८० होता है और तीनसे गुणा करनेपर २५ सबका जोड़ ५७० होता है ।।७२७॥ यहाँसे आगे गुणस्थानों में और मार्गणाओंमें गुणस्थान जीवसमास इत्यादि बीस भेदोंकी योजना करते हैं . वर्धमान स्वामीके मुखरूपी कमलसे निकले सकलश्रुतको ग्रहण और प्रकट करनेमें समर्थ गौतम स्वामीको नमस्कार करके सिद्धान्तालापको कहूँगा। गुणस्थानोंमें जैसे चौदह गुणस्थानवी जीव हैं तथा गुणस्थानसे रहित सिद्ध हैं। चौदह । जीवसमाससे युक्त जीव हैं और उनसे रहित जीव हैं। छह-छह, पाँच-पाँच, चार-चार पर्याप्ति और अपर्याप्तिसे युक्त जीव हैं और उनसे रहित जीव हैं । दस सात, नौ सात, आठ छह, सात पाँच, छह चार, चार तीन, चार दो और एक प्राणके धारी जीव हैं और उनसे रहित जीव हैं। चार संज्ञावाले और उनसे रहित जीव हैं। चार गतिवाले और गतिरहित सिद्ध ३५ _ ३० For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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