Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 427
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका दर्शनमार्गणेयोनु चक्षुदर्शनं चतुरि द्रियमिथ्यादृष्टि मोदल्गोंडु क्षीणकषायगुणस्थानपर्यंत पन्नेरडु गुणस्थानंळोळप्पुदल्लि चतुरिदियसंजिपंचेंद्रियासंज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासगळारप्पुवु। अचक्षुर्दर्शनं स्थावरकायमिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि क्षीणकषायगुणस्थानपथ्यंत पनेरडं गुणस्थानंगळोळप्पुदल्लि पदिनाल्कुं जीवसमासेगळप्पुवु। अवधिदर्शनमसंयतसम्यग्दृष्टिगणस्थानमादियागि क्षीणकषायगुणस्थानपय्यंतमो भत्तु गुणस्थानगळा जिपंचेंद्रिय पर्याप्तापर्याप्तजीवसमासगळेरडेयप्पुवु। केवलदर्शनं सयोगिकेवलिययोगिकेवलिगळे बरडं गुणस्थानंगळोळप्पुदल्लि संजिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासयुं समुद्घातकेवलिय अपर्याप्तजीवसमासमुमितरडु जीवसमासेगळप्पुवु- च । अअ । के। गुणस्थानातीतरप्प सिद्धरोळं केव १२।१२।९।२। ६ । १४ । २।२। लदर्शन नक्कुं॥ थावरकायप्पहुडी अविरदसम्मोत्ति असुहतियलेस्सा । सण्णीदो अपमत्तो जाव दु सुहतिण्णिलेस्साओ ॥६९२॥ स्थावरकायप्रभृत्यविरतसम्यग्दृष्टिपथ्यंतमशुभत्रयलेश्याः । संज्ञितोऽप्रमत्तं यावत् शुभत्रयलेश्याः ॥ लेश्यामागंणेयोळु अशुभत्रयलेश्यगळु स्थावरकायमिथ्यादृष्टिगुणस्थानमावियागि असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानपय्यंतं नोल्कुगुणस्थानंगळोळु संभविसुववल्लि एकेंद्रियबादरसूक्ष्मद्वित्रिचतुः- १५ पंचेंद्रियसंज्यसंज्ञिपर्याप्ताऽपर्याप्तभेदविभिन्नजीवसमासेगळु पदिनाल्कुमप्पुवु । तेजःपालेश्यगळु संज्ञिमिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि अप्रमत्तगुणस्थानपर्यंतमेळं, गुणस्थानंगळोळप्पुवल्लि संजिपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासेगळरडेरडप्पुवु । दर्शनमार्गणायां चक्षुर्दर्शनं चतुरिन्द्रियमिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तं । तत्र जीवसमासाः चतुरिन्द्रियसंश्यसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्ताः षट् । अचक्षुर्दर्शनं स्थावरकायमिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्तं तंत्र जीवसमासाश्चतुर्दश । २० अवधिदर्शनं असंयतादिक्षीणकषायान्तं तत्र जीवसमासौ संज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ। केवलदर्शनं सयोगायोगगणस्थानयोः तत्र जीवसमासौ केवलज्ञानोक्तो द्वौ। सिद्धेऽपि केवलदर्शनं भवति । ___ लेश्यामार्गणायां अशुभलेश्यात्रयं स्थावरकायमिथ्यादृष्ट्याद्यसंयतान्तं तत्र जीवसमासाः चतुर्दश । तेजःपद्मलेश्ये संज्ञिमिथ्यादृष्टयाद्यप्रमत्तान्तं तत्र जीवसमासौ संज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ ॥६९२॥ दर्शनमार्गणामें चक्षुदर्शन चतुरिन्द्रिय मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त होता २५ है। उसमें जीवसमास चौइन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय,इनके पर्याप्त और अपर्याप्त के भेदसे छह होते हैं। अचक्षुदर्शन स्थावरकाय मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त होता है। उसमें जीवसमास चौदह होते हैं। अवधिदर्शन असंयतसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थानपर्यन्त होता है। उसमें जीवसमास संज्ञी पर्याप्त और अपर्याप्त होते हैं। केवलदर्शन सयोगी-अयोगी गुणस्थानोंमें होता है। उसमें दो जीवसमास होते हैं जो केवल- १० ज्ञानमें होते हैं। सिद्धोंमें भी केवलदर्शन होता है ॥६९१॥ ___ लेश्यामार्गणामें तीन अशुभ लेश्या स्थावरकाय मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयत गुणस्थान पर्यन्त होती है। उनमें जीवसमास चौदह हैं। तेजोलेश्या और पद्मलेश्या संज्ञी मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त होती हैं। उसमें जीवसमास संज्ञी पर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त होते हैं ।।६९२॥ ११५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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