Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
________________
८०६
गो० जीवकाण्डे तम्मिदमे वत्तिसुत्तिर्णवक्के बाहोपग्रहमिल्लदे तवृत्त्यसंभवमप्पुरिदमा द्रव्यंगळ प्रवर्तनोपलक्षितं कालमें दितु माडिवर्तने कालदुपकारमक्कुमे दरियल्पडुवुदु । इल्लि णिच्चिगर्थमावुर्वेदोडे वर्तते द्रव्यपव्यस्तस्य वर्तयिता कालः एंदितु कालक्कर्थमादोड़े कालक्के क्रियावत्वमागि बक्कुम तोगळु अधीते शिष्यः उपाध्यायोध्यापयति एंबते कर्तृत्वमक्कुम दोडिल्लि दोषमिल्लेके दोर्ड निमित्तमात्रमादोडं हेतुकतृ व्यपदेशं काणल्पटुईं । येतीगळु कारिषोग्निरध्यापयति एंदितु कालक्क हेतुकर्तृतयक्कुमंतादोडा कालमतु निश्चयिसल्पडुगुम दोडे समयाधिक क्रियाविशेषंगळगं समयादिनित्यंगळप्प पाकादिगळ्गं समयमें दुं पाक दितित्येवमादि स्वसंज्ञारूढिसद्भावदोळं समयः कालः ओदनपाककालः एंदितध्यारोपिसल्पडुत्तिदावुदोंदु कालव्यपदेशनिमित्तमप्प मुख्यकालदस्तित्वमं पेळ्गुमेकेदोडे गौणक्के मुख्यापेक्षत्वमुंटप्पुरिदं । षड्द्रव्यंगळवर्तनाकारणं मुखकालमक्कुमा वर्तन१० गुणमुं द्रव्यनिचयंगळोळे अक्कुमंतादोडमा कालाधारदिदमे सर्बद्रव्यंगळं वत्तंते। परिणमंति
स्वपयिंगळिदं परिणमिसुतिर्पवु खलु नियमदिदं इल्लि खलुशब्दमवधारणार्थमक्कुं। इदरिंदं कालक्के परिणामक्रियापरत्वापरत्वोपकारंगळु पेळल्पदृवु ।
द्रव्याणां स्वपर्यायनिर्वृत्ति प्रति स्वयमेव वर्तमानानां बाह्योपग्रहाभावे तवृत्यसंभवात् तेषां प्रवर्तनोपलक्षितः
काल इति कृत्वा वर्तना कालस्य उपकारो ज्ञातव्यः । अत्र णिचोऽर्थः कः ? वर्तते द्रव्यपर्यायः तस्य वर्तयिता १५ काल इति । तदा कालस्य क्रियावत्त्वं प्रसज्यते अधीते शिष्यः, उपाध्यायोऽध्यापयतोत्यादिवत, तन्न
निमितमात्रेऽपि हेतुकर्तृत्वदर्शनात् कारीषोऽग्निरध्यापयतीत्यादिवत् । तहि स कथं निश्चीयते ? समयादि क्रियाविशेषाणां समय इत्यादेः समयादिनिर्वयंपाकादीनां पाक इत्यादेश्च स्वसंज्ञायाः रूढिसद्भावेऽपि तत्र काल इति यदध्यारोप्यते तन्मुख्यकालास्तित्वं कथयति गौणस्य मुख्यापेक्षत्वात् इति षड् द्रव्याणां वर्तनाकारणं मुख्यकालः ।
वर्तनगुणो द्रव्यनिचये एव, तथा सति कालाधारेणैव सर्वद्रव्याणि वर्तन्ते स्वस्वपर्यायैः परिणमन्ति खलु नियमेन। २० अत्र खलुशब्दोऽवधारणार्थः, अनेन कालस्यैव परिणामक्रियापरत्वापरत्वोपकारौ उक्तो । तौ तु जीवपुद्गल
योद्देश्येते धर्मादि-अमूर्तद्रव्येषु कथं ? इति चेदाह
वर्तन करते हैं, किन्तु बाह्य उपकारके बिना वह सम्भव नहीं है अतः उनकी वतनामें जो निमित्त मात्र होता है,वह काल है। ऐसा करके वर्तना कालका उपकार जानना। यहाँ
णिच् प्रत्ययका अर्थ है-द्रव्यकी पर्याय वर्तन करती है,उसका वर्तन करानेवाला काल है। २५ शंका-तब तो कालको क्रियावान् होनेका प्रसंग आता है । जैसे शिष्य पढ़ता है और उपाध्याय पढ़ाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि निमित्त मात्रमें भी हेतुकर्तापना देखा जाता है; जैसे (रात्रिके समयमें) कण्डेकी आग पढ़ाती है।
शंका-उस कालके अस्तित्वका निश्चय कैसे होता है ?
समाधान-समय, घड़ी, मुहूर्त आदि जो क्रिया विशेष हैं, उनमें जो समय आदिका व्यवहार किया जाता है, समय आदिसे होनेवाले पकाने आदिको जो समयपाक इत्यादि कहा जाता है।इन रूढ़ संज्ञाओंमें जो कालका आरोप है। वह मुख्य कालके अस्तित्वको कहता है क्योंकि उपचरित कथन मुख्य कथनकी अपेक्षा रखता है । इस प्रकार छह द्रव्योंकी वर्तना
का कारण मुख्यकाल है। यद्यपि वर्तना गुण द्रव्यसमूहमें ही वर्तमान है , उन्हीं में वह ३५ शक्ति है,तथापि कालके आधारसे ही सब द्रव्य वर्तन करते हैं अर्थात् अपनी-अपनी पर्याय ' रूपसे परिणमन करते हैं। यहाँ खलु अवधारणार्थक है। इससे परिणाम क्रिया और परत्व,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org