Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० जीवकाण्डे
निगोदवर्गणावसानमर्नवरमा उत्कृष्टसूक्ष्मनिगोदवर्गणेयोळ वग्गळु येनितु संभविसुगुम दोडो दु मेणु रडु मेणु मूरुत्कृष्टददमावल्यसंख्यातैकभागमात्रंगळ पुवल्लि सर्व्वत्रा भव्य सिद्धप्रायोग्ययवमध्यंगळा गुणहान्यध्वानं सर्वजीवंगळं नोडलनंतगुणितमक्कुं १६ ख नानागुणहा निशलाकेगळ यवमध्यदत्तणव केळगेयुं मेगेयुमावल्यसंख्यातैकभागमात्रगळ
८ ।
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पुढवी जलं च छाया चउरिं दिय विसयकम्मपरमाणू । छव्हियं भणियं पोग्गलदव्वं जिणवरेहिं ॥ ६०२॥
पृथ्वी जलं च छाया चतुरिद्रियविषयः कर्म्मपरमाणुः षड्विधभेदं भणितं पुद्गलद्रव्यं जिनवरैः ॥
पृथ्विये हुं जलमे दुं छाये 'दुं चक्षुरिद्रिय विषय वज्जितशेषेंद्रियचतुष्टयविषयमें दु कर्म्मम ढुं १० परमाणुमे दितु पुद्गलद्रव्यं षट् प्रकारममुळ्ळुदेंदु जिनवरिदं भणितं निरूपिसल्पटु ।
भागो भवति । तत्र सर्वत्र अभव्यसिद्ध प्रायोग्ययवमध्येषु गुणहान्यध्वानं सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणं १६ ख नानागुणहानिशलाकायवमध्यादधः उपर्यपि आवंल्यसंख्यातैकभागः ८ ।। ६०१ ॥
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पृथ्वी जलं छाया चक्षुषैजितशेषचतुरिन्द्रियविषयः कर्म परमाणुश्चेति पुद्गलद्रव्यं षोढा जिनवरैर्भणितम् ||६०२ ॥
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रूप जो वर्गणा भेद हैं, उन भेदोंका प्रमाण तो द्रव्य है । और जिन वर्गणाओंमें उत्कृष्ट पाने की अपेक्षा समानता पायी जाती है, उनका समूह निषेक है और उनका जो प्रमाण है, वह स्थिति है । तथा एक गुणहानिमें निषेकोंका जो प्रमाण है, वह गुणहानिका गच्छ है । उसका प्रमाण जीवराशि से अनन्त गुना है । तथा यवमध्य के ऊपर और नीचे जो गुणहानिका प्रमाण है, वह नाना गुणहानि है । सो प्रत्येक आवलीका असंख्यातवां भाग मात्र है ।
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इस प्रकार द्रव्यादिका प्रमाण जानकर जैसे निषेकोंमें द्रव्यका प्रमाण लानेका विधान है, वैसे ही उत्कृष्ट पाने की अपेक्षा समानरूप वर्गणाओंका प्रमाण यवमध्यसे ऊपर और नीचे चय घटता क्रम लिये जानना ।
शंका- यहाँ तो प्रत्येक आदि तीन सचित्त वर्गणाओंके अनन्त भेद कहे और एक-एक भेदरूप वर्गणा लोक में आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण सामान्य रूपसे कहीं । किन्तु २५ पहले मध्यभेदरूप सचित्त वर्गणा सब असंख्यात लोक प्रमाण ही कही है। सो उत्कृष्ट और जघन्यको छोड़ सब भेद मध्य भेदोंमें आ जाते हैं, वहाँ ऐसा प्रमाण कैसे सम्भव है ?
समाधान - यहाँ सब भेदोंमें ऐसा कहा है कि होते भी हैं, नहीं भी होते । यदि होते हैं, तो एक दो आदि उत्कृष्ट आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं । सो यह कथन नाना कालकी अपेक्षा है, किसी एक वर्तमान कालकी अपेक्षा वर्तमान काल में सब मध्यभेद३० रूप प्रत्येकादि वर्गणा असंख्यात लोक प्रमाण ही पायी जाती हैं; अधिक नहीं। उनमें से
किसी भेदरूप वर्गणाकी नास्ति ही है और किसी भेदरूप वर्गणा एक आदि प्रमाण में पायी जाती है। तथा किसी भेदरूप वर्गणा उत्कृष्ट प्रमाणको लिये हुए पायी जाती है ।
इस प्रकार तेईस वर्गणाओंका कथन किया ||६०१ ||
पृथ्वी, जल, छाया, चक्षुको छोड़ शेष चार इन्द्रियोंका विषय और कार्माण स्कन्ध ३५ तथा परमाणु इस प्रकार जिनेन्द्रदेवने पुद्गल द्रव्यके छह भेद कहे हैं ||६०२ ॥
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