Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० जीवकाण्डे
मुक्तिगे संद कालमैतप्पुर्वेदितु त्रैराशिकं माडि प्र। ६०८ फल मासं ६ । इ ३ बंद लब्धं संख्यातावलिहतसिद्धराशिप्रमाणमप्पुरिदं।
समयो हु वट्टमाणो जीवादो सव्वपोग्गलादो वि ।
भावी अणंतगुणिदो इदि ववहारो हवे कालो ॥५७९॥ समयः खलु वर्तमानो जीवात्सर्वपुद्गलादपि च । भावी अनंतगुणित इति व्यवहारो भवेत्कालः॥
वर्तमानकालमेकसमयमेयक्कं । सर्वजीवराशियं नोडलं सर्वपुद्गलराशियं नोडलं भावी भविष्यत्कालमनंतगुणितमक्कुमितु व्यवहारकालं त्रिविधमेंदु पेलल्पटुदु।
_कालोत्ति य ववएसो सम्भावपरूपओ हवदि णिच्चो।
उप्पण्णपद्धंसी अवरो दीहंतरट्ठाई ॥५८०। काल इति व्यपदेशः सद्भावप्ररूपको भवति नित्यः। उत्पन्नप्रध्वंसी अपरो दीर्घान्तरस्थायो॥
कालमबी यभिधानं मुख्यकालसद्भावप्ररूपकं । मुख्यकालास्तित्वमं पेन्गुं एंतेंदोडे मुख्यविल्लदिरुत्तिरलु गौणक्कभावमक्कुम तोगळु सिंहक्कभावमागुत्तिरलु वटुः सिंहः एंबिदक्कभाव१५ प्रतीति न्यायमिल्लिगमंतुटयक्कुमप्पुरिदमा मुख्यकालं नित्यमुं उत्पन्न प्रध्वंसियक्कं येक दोड
द्रव्यवदिद मुत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तमप्पुदरिंदमपरव्यवहारकालं वर्तमानकालापेक्षयिंदमुत्पन्नप्रध्वंसि
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नन्तकभागमुक्तजीवानां कियान् ? इति राशिकागतस्य तत्प्रमाणत्वात् । प्र ६०८ फ मा ६ इ ३ लब्धं ३ । २१॥५७८॥
वर्तमानकालः खल्वेकसमयः भावी सर्वजीवराशितः सर्वपुद्गलराशितोऽप्यनन्तगुणः, इति व्यवहारकालः २० त्रिविधो भणितः ॥५७९॥
__ काल इति व्यपदेशो मुख्यकालस्य सद्भावप्ररूपकः मुख्याभावे गौणस्याप्यभावात् सिंहाभावे वटुः सिंह इत्यादिवत् । स च मुख्यः नित्योऽपि उत्पन्नप्रध्वंसी भवति द्रव्यत्वेन उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तत्वात् । अपरः कितना काल होगा। इस प्रकार राशिक करना। सो प्रमाण राशि छह सौ आठ, फल
राशि छह महीना आठ समय । इच्छाराशि सिद्धोंकी संख्या । फलराशिको इच्छाराशिसे २५ गुणा करके उसमें प्रमाणराशिसे भाग देनेपर लब्धराशि संख्यात आवलीसे 'गुणित सिद्धराशि आती है । वही अतीत कालका परिमाण है ।। ५७८ ॥
वर्तमान कालका परिमाण एक समय है। भाविकाल सर्व जीवराशि और सर्व पुद्गलोंसे भी अनन्त गुणा है । इस प्रकार व्यवहार काल तीन प्रकारका कहा ॥ ५७९ ॥
लोकमें जो 'काल' ऐसा व्यवहार है,वह मुख्यकालके सद्भावको कहता है,क्योंकि ३० मुख्यके अभावमें गौण व्यवहार भी नहीं होता। जैसे सिंहके अभावमें यह बालक सिंह है।
ऐसा कहने में नहीं आता। वह मुख्यकाल नित्य होनेपर भी उत्पत्ति और व्ययशील है,क्योंकि द्रव्य होनेसे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त है। दूसरा व्यवहारकाल वर्तमानकी अपेक्षा उत्पादव्ययशील है और अतीत-अनागतकी अपेक्षा दीर्घकाल तक स्थायी होता है। इस विषयमें उपयोगी श्लोक इस प्रकार है
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