Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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________________ 2 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन परम्परा में 'बाईबिल', पारसी परम्परा में 'अवेस्ता' एवं इस्लाम परम्परा में 'कुरानशरीफ' पावन एवं पवित्र धर्मग्रन्थ माने गए हैं। जैन परम्परा में धर्मग्रन्थों को 'आगम' के ... नाम से सम्बोधित किया गया है। आगम को न तो वेदों के समान अपौरुषेय माना गया है और न ही किसी ईश्वर का संदेश। आगम उन अर्हन्तों एवं महापुरुषों की वाणी है जिन्होंने अपने तप, त्याग, संयम आदि के द्वारा आत्मज्ञान/केवलज्ञान को प्राप्त किया और उसी के आधार पर जो कुछ भी प्रतिपादित किया, वह सर्वहित के लिए पावन बन गया। (क) 'आगम' का शाब्दिक विश्लेषण ‘आगम' शब्द 'आ'+'गम्' धातु से निर्मित हुआ है। 'आ' का अर्थ पूर्ण एवं 'गम्' का अर्थ गति, गमन, प्रयोजन, विचार या उत्पत्ति है। आचारांगसूत्र में आगम' बोध-ज्ञान, जानने आदि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। व्याख्याप्रज्ञप्ति, अनुयोगद्वारसूत्र, स्थानांगसूत्र एवं प्राकृतकोश ग्रन्थों में 'आगम' शब्द शास्त्र या सिद्धान्त के रूप में प्रयुक्त हुआ है। 'आगम' का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ ___ 'आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था येन स आगम:'।५ अर्थात् जो पूर्ण रूप से आए हुए हैं, वे अर्थ ही आगम हैं। जीतकल्प में आगम की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है- 'आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अतीन्द्रिया पदार्थाः अनेनेत्यागमः।' अर्थात् जिससे पूर्व परम्परा से आए हुए या प्रतिपादित किए गए अतीन्द्रिय पदार्थ स्पष्ट होते हैं वे आगम हैं। (ख) आगम के पर्यायवाची शब्द प्राचीनकाल से लेकर अब तक ‘आगम' के कई नाम प्रचलित हुए। प्रारम्भ में इसे सुत्त या सूत्र, सुत या श्रुत कहा जाता था। स्थानांग में आगम-ज्ञाताओं को 'श्रुत-स्थविर' एवं 'श्रुतकेवली' कहा गया है।६ नन्दीसूत्र में भी 'श्रुत' शब्द का ही प्रयोग मिलता है। 1. “............आगमेत्ता आणवेज्जा............. आयारो तह आचारचूला- मुनि नथमल, 1/5/4, पृ०-६१। 2. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, मुनि मधुकर-५/३/१९२. 3. स्थानांगसूत्र मुनि मधुकर, 388. 4. पाइअ सद्द-महण्णवो- पं०. हरगोविन्ददास, पृष्ठ-११. 5. सर्वार्थसिद्धि 5/6. 6. स्थानांगसूत्र, मुनि मधुकर, सूत्र, 150. 7. नन्दीसूत्र, मुनि मधुकर, सूत्र, 75. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org