________________
“पदार्थ न एक है और न अनेक। एक इसीलिये नहीं क्योंकि पदार्थों में विविधता है और उस विविधता को सिद्ध करने वाला प्रमाण न होने के कारण 'अभावैकान्त' कहना ठीक है।"
जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि अनादि अनंत है, उसमें न तो नया उत्पाद है और न प्राप्त सत् का विनाश है। वह मात्र पर्यायपरिवर्तन करता रहता है।
न तो असत् से सत् उत्पन्न होते हैं और न सत् का कभी विनाश होता है। समस्त साधन की उपलब्धता में भी मृपिंड के अभाव में घड़े का उत्पाद नहीं होता।' भाव (द्रव्य) मात्र गुण और पर्याय में परिवर्तन करते हैं, परंत सत् का उत्पाद या विनाश कभी नहीं होता।' हरिभद्रसूरि ने शास्त्रवार्ता समुच्चय में भी इसी व्याख्या की पुष्टि की है।
जैन दर्शन ने द्रव्य छह माने हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं काला तत्वार्थ सूत्र में यद्यपि 'काल' द्रव्य का वर्णन उपर्युक्त पाँच अस्तिकाय द्रव्यों के
वर्णन के साथ तो नहीं उपलब्ध होता, परंतु इसी (पाँचवें) अध्याय के पैंतीसवें सूत्र में काल को द्रव्य के रूप में लिया है। राजवार्तिक में द्रव्य की संख्या उपलब्ध होती है।' कुंदकुंदाचार्य ने धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव, इनके लिये अस्तिकाय एवं काल को परिवर्तनलिंग युक्त कहकर द्रव्य की संख्या स्वीकार की है। वे सभी द्रव्य परस्पर मिश्रित रहकर एक दूसरे में प्रवेश करते हैं, एक दूसरे को अवकाश देते हैं, परस्पर मिल जाते हैं फिर भी अपने स्वभाव का त्याग नहीं करते।'
वैशेषिक छह पदार्थ मानते हैं। द्रव्य, गुण, कर्म,सामान्य, विशेष और समवाय 1. "भावा येन निरूप्यन्ते तद्रूपं नास्ति तत्वतः। यस्मोदकमनेक च, रूपं तेषां न विद्यते" प्रमाणवार्तिका. 2.360 2. शास्त्रवार्ता समुच्चय 6.28 3. भावस्स णत्यि णासो.... पुकव्वंति पं. का. 15 4. शास्त्र. 6.37, एवं 11.5 5. त.सू. 1.3 6. त.सू. 5.35 7. रा.वा. 5.3.442 8. पं. का. 2.6 9. अण्णोण्णं पविसंता.... विजंहति प. का. न.. 10. स्याद्वादमंजरी 8.48
___Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org