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है, लघु और सूक्ष्म है, क्रियारहित, सर्वव्यापक और सबसे प्रथम उत्पन्न पदार्थ हैं।'
जैन दर्शन वेदान्त की आकाश व्यवस्था से सहमत नहीं है क्योंकि चेतन से अचेतन तत्व कैसे उत्पन्न हो सकता है? आकाश शाश्वत और विभु है, फिर वह समय- विशेष में उत्पन्न कैसे माना जा सकता है? आकाश स्वयं स्वतंत्र और षड्द्रव्यों में से एक द्रव्य है।
बौद्ध मत और आकाशः-बौद्ध दर्शन के अनुसार तत्व चार है, पृथ्वी जो कठोर है, जल जो शीतल है, अग्नि जो उष्ण है, वायु जो गतिमान है। आकाश को वे नहीं मानते, परंतु कई वाक्यों में निरपेक्ष आकाश को भी जोड देते हैं। बुद्ध का कहना था "हे आनंद! यह महान पृथ्वी जल पर आश्रित है, जल वायु पर आश्रित है और वायु आकाश पर आश्रित है।
आकाश का विवेचन एक अन्य अपेक्षा से भी आता है। “नागसेन! इस संसार में ऐसे प्राणी पाए जाते हैं जो कर्म के द्वारा इस जन्म में आये हैं, दूसरे ऐसे हैं जो किसी के परिणाम के रूप में आये हैं, परंतु दो वस्तुएँ ऐसी हैं जो इन दोनों की श्रेणी में नहीं आती- एक है आकाश और दूसरा है निर्वाण।"
परन्तु वैभाषिक और सौत्रान्तिक दो लोक मानते हैं और इनमें परस्पर भेद करते हैं-भाजनलोक जो वस्तुओं का आवास स्थान है और सत्वलोक जो जीवित प्राणियों का संसार है। भाजन लोक सत्वलोक की सेवा के लिये है।'
आकाश सभी प्रकार के भेद से स्वतंत्र एवं अनंत है। यह नित्य, सर्वव्यापक और भावात्मक पदार्थ है। यद्यपि इसका कोई रूप नहीं है फिर भी यह सत् है। यह भौतिक पदार्थ भी नहीं है।'
जैन दर्शन की मान्यता है कि आकाश आवरण भावमात्र नहीं है, किन्तु वस्तुभूत है। जिस प्रकार से नाम और वेदना आदि अमूर्त होने से अनावरण 1. शांकरभाष्य 2.3.7 2. भारतीय दर्शन भाग एक डा. राधाकृष्णन पृ. 350. 3. दीघनिकाय 207 4. मिलिन्द 4 5. भारतीय दर्शन भाग एक डॉ. राधाकृष्णन् पृ. 567.68 6. वही पृ. 568
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