Book Title: Dravyavigyan
Author(s): Vidyutprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 213
________________ मात्र देने वाले उदासीन उपकारी होते हैं- “पुद्गल" यह जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। 1 पुद्गल एक विचित्र सा शब्द लगता है। पृथ्वी, अग्नि, वायु, कीड़े मकोड़े आदि सभी जो दृश्य हैं, वह पुद्गल है। यद्यपि पुद्गल के अनेकों भेद है पर जैनदर्शन ने उसे षट्काय में विभक्त कर दिया है। यों तो ये जीव के भेद कहलाते हैं पर इनका विभाजन काय या इन्द्रिय की अपेक्षा होता है और काय तथा इन्द्रियाँ पुद्गल है। जब तक इनके साथ जीव है तब तक जीवों के शरीर कहलाते है और जीव का वियोग होते ही ये पुद्गल कहलाते हैं। अनंत काल से जीव और पुद्गल क्षीर नीर की तरह रहने पर भी पुद्गल जीव नहीं बना या जीव पुद्गल के रूप में परिवर्तित नहीं हुआ। पुद्गल शब्द की व्युत्पत्ति और लक्षणः - यह पुद्गल शब्द रूप नहीं, परंतु व्युत्पत्ति है। जिस प्रकार से भा को करने वाला भास्कर कहलाता है, उसी तरह जो भेद संघात से पूरण और गलन को प्राप्त हो वे पुद्गल हैं।' यह शब्द पृषोदरादि गण से निष्पन्न होता है। परमाणुओं में भी शक्ति की अपेक्षा गलन और पूरण है तथा प्रतिक्षण अगुरुलघुगुण कृत गुणपरिणमन गुणवृद्धि और गुणहानि होती रहती है। अतः उनमें भी पूरण और गलन व्यवहार मानने में कोई आपत्ति नहीं है अथवा यह भी हो सकता है कि जीव शरीर, आहार, विषय और इन्द्रिय उपकरण आदि के रूप में निगले / ग्रहण करें, पुद्गल है। परमाणु भी स्कंध दशा में जीवों द्वारा ही निगले जाते हैं।" यह पुद्गल दो शब्दों के मेल से बना है। यह शब्द इस प्रकार से निष्पन्न हुआ है- 'पूरणात् पुत् गलयतीति गलपूरणं - गलानान्वर्थ संज्ञत्वात् पुद्गलाः" अर्थात् पूर्ण स्वभाव से पुत् और गलन स्वभाव से गल, इन दो अवयवों के मेल से पुद्गल शब्द बना है यानि पूरण और गलन को प्राप्त होने से पुद्गल का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है जुड़ना, टूटना और पुनः जुड़ना। “गलनपूरणस्वभावसनाथः पुद्गलः "" अर्थात जो गलन- पूरण स्वभाव सहित है। ( पृथक् होने और एकत्रित होने के स्वभाव वाला है) वह पुद्गल है। इससे तीन बातें स्पष्ट हुई। 1. भगवती 8.10.361 2. त. रा. वा. 5.1 24-26, 434 3. नियमसार वृत्ति 9 एवं बृहद द्रव्य संग्रह वृत्ति 15 185 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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