Book Title: Dravyavigyan
Author(s): Vidyutprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 228
________________ पानी नजर आता है, पर वहाँ भी नहीं मिलता। वह इधर-उधर दौड़ता है और अंत में तड़प-तड़प कर अपने प्राण दे देता है। इस प्रकार के सभी दृश्य जो सचमुच कुछ नहीं होते, केवल दिखायी देते हैं, उसे मृग मरीचिका के नाम से संबोधित किये जाते हैं। ये मृग मरीचिका वस्तुओं का अस्तित्व न होने पर भी दिखायी देना, एक वस्तु होने पर भी उसके अनेक प्रतिबिंब दिखना, वस्तुओं का अदृश्य होना आदि अनेक रूपों में स्पष्ट होती है। ____मीमांसक की मान्यता "दर्पण में छाया नहीं पड़ती, परंतु नेत्र की किरणें दर्पण से टकराकर वापस लौटती है और अपने मुख को ही देखती है" उचित नहीं है। क्योंकि नेत्र की किरणें जैसे दर्पण से टकरा कर मुख को देखती है, उसी तरह दीवाल से टकराकर भी उन्हें मुख को ही देखना चाहिये। इस तरह जब किरणें वापस आती है तो पूर्वदिशा की तरफ जो मुख है, वह पूर्वाभिमुख ही दिखना चाहिये, पश्चिमाभिमुख नहीं। मुख की दिशा बदलने का कोई कारण नहीं है।' आतपः-जैन दर्शन में आतप को पुद्गल की ही पर्याय कहते हैं। आतप शब्द तप धातु से बना हुआ है, जिसका अर्थ है ताप या उष्ण किरणें। सूर्य की धूप मात्र को आतप कहना अर्थ का संकोच है। जैन दर्शन में अग्नि को आतप नहीं माना है। धूप को आतप माना है। इससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि वस्तु में रही हुई उष्णता वस्तु या द्रव्य का गुण है और उष्णता का वस्तु से अलग अस्तित्व वस्तु या द्रव्य का पर्याय है। आग रूप कोयला, लकड़ी आदि इंधन की उष्णता कोयला आदि वस्तुओं का उष्ण गुण है, आतप यह नहीं है। आतप है आग की आंच जो आग्नेय पदार्थों से भिन्न हो चारों ओर फैलती है और जिसका अनुभव आग से दूर बैठा व्यक्ति करता है। यद्यपि यह आग से निकली है, फिर भी इसका अस्तित्व आग से अलग है, जैसे सूर्य से निकली किरणों का सूर्य से अलग अस्तित्व है। ताप या धूप पर्याय होने के कारण स्थानान्तरित होती है। जिस प्रकार इलेक्ट्रोन तथा प्रोट्रोन एक दृष्टि से पदार्थ है और दूसरे 1. त. रा. वा. 5.24 17.489 2. त. रा. वा. 5.24 18.489 200 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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