Book Title: Dravyavigyan
Author(s): Vidyutprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 237
________________ हमारी सृष्टि द्वन्द्वात्मक है। चेतन और अचेतन इन दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है और इसे जैन दर्शन ने षड्द्रव्यों में विभक्त किया है। इन्हीं षड्द्रव्यों का सतत परिवर्तन संसार की व्यवस्था को संतुलित रखता है। अगर मात्र शाश्वतवाद पर हमारी श्रद्धा स्थिर होती तो स्पष्ट दृष्टिगत हो रहे परिवर्तन को क्या कहते? इसे मात्र मिथ्या या असत्य कहकर नकारना कैसे उचित होता? जो चीज स्पष्टतः इन्द्रियग्राह्य बन रही है, उसे मात्र मिथ्या मानकर उसका अस्तित्व कैसे उडाया जा सकता है? अगर सारा जगत् मिथ्या है तो सम्यक् कुछ भी नहीं रहेगा। ___ जैन दर्शन ने इसे मिथ्या कहने की बजाय आत्मभाव के अतिरिक्त समस्त पदार्थों को पर पदार्थ कहकर उसके अस्तित्व को स्वीकृति प्रदान की। पर द्रव्यों में जब तक आत्म बुद्धि है, तब तक संसार है और ज्योहि यह आत्मभाव समाप्त हुआ, जैन दर्शन के अनुसार मुक्ति है। पर द्रव्य को हम मिथ्या या असत् नहीं कह सकते। उनका अपना अस्तित्व है। मात्र अशाश्वत को स्वीकार करते तो भी वही दार्शनिक समस्या थी। अगर मात्र परिवर्तन ही परिवर्तन रहे तो कर्त्ता किसे कहें? कारण और कार्य में उपादान और उपदेय भाव भी कैसे बनेगा? यदि उपादान कारण सर्वथा क्षणिक है तो कार्यकाल तक स्थिर नहीं रहेगा और कार्योत्पत्ति के एक क्षण पूर्व ही नष्ट हो जाता है तो जिस प्रकार दो घण्टा अथवा दो दिन पहले नष्ट हुआ कारण कार्योत्पत्ति में निमित्त नहीं होता, उसी प्रकार एक क्षण पूर्व भी नष्ट हुआ कारण कार्योत्पत्ति में निमित नहीं बनता। अतः यह मानना होगा कि सत् और असत् दोनों भावों का समन्वय ही वस्तु के विवेचन में सहायक है। सत् और असत् को विरोधी नहीं कह सकते क्योंकि इन दोनों का सद्भाव एक दृष्टि से नहीं है। सत् भी अपेक्षा से है, असत् भी अपेक्षा से है। सत् द्रव्य की अपेक्षा से है और असत् पर्याय की दृष्टि से है। उपनिषद् के सत् से जैन दर्शन के सत् की तुलना कुछ अपेक्षा से तर्कसंगत नहीं जान पड़ती क्योंकि उपनिषद् का सत् ब्रह्म भी बनता है और साथ ही स्वयं तो व्यवस्थापक के रूप में सत्यस्वरूपी रहता ही है व अपनी सृष्टि 209 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270