________________
उपकार है, जैसे अनुचर मालिक की आज्ञा मानने को मजबूर है वैसे ही पुद्गल द्वारा निर्मित इन्द्रिय आदि जीव की आज्ञा मानते ही हैं।' हमने इस अध्याय में पुद्गल का विस्तृत विवेचन किया। अब प्रश्न उठता है कि पुद्गल को जानने का प्रयोजन क्या है?
मुख्य तत्व तो दो ही हैं-जीव और अजीव। जब तक जीव अजीव के स्वरूप, स्वभाव, और प्रकृति को नहीं समझ लेगा तब तक वह अजीव से मुक्त होने का न तो प्रयास कर सकेगा और न मुक्ति की रुचि पैदा होगी। पुद्गल का चित्र, विचित्र रंग बिरंगा आकर्षण जीव को मुग्ध करता रहेगा। जीव इस आकर्षण से मुक्ति हेतु तभी पुरुषार्थ करेगा, जब उसे हेय और उपादेय का सम्यक् ज्ञान हो जायेगा। वस्तु स्वरूप को जानकर ही जीव हेय (त्याज्य) का त्याग एवं उपादेय (ग्राह्य) को स्वीकार कर सकेगा।
इस पंचास्तिकाय के स्वरूप को जानकर जो रागद्वेष को छोड़ता है, वही मुक्त होता है।
जैन दर्शन का लक्ष्यः-जैन दर्शन मात्र विवेचनात्मक दर्शन ही नहीं है, वह उपयोगी सिद्धांतों के प्रतिपादन द्वारा आचरण योग्य भी है। जैन दर्शन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है और उसी मुक्ति की प्राप्ति में अवरोधों को जानने का और आचरण का उपदेश जैन दार्शनिकों ने दिया है।' षड्द्रव्य को भी इसीलिये समझना चाहिये।
जीव और पुद्गल का संबंध अनादि है, पर उसे समाप्त किया जा सकता है और शुद्ध आत्मस्वभाव प्रकट हो सकता है।'
।. त मू. 5.20 2. प. का. 103 }. "आथवो भवहेतुः स्यात् ...प्रपञ्चनय्" सर्वदर्शन संग्रह पृ. 4.39
4. रा. वा. 5.19 29.472
207
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org