Book Title: Dravyavigyan
Author(s): Vidyutprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 246
________________ है, यह बात हमारे अनुभव में भी अक्सर आ जाती है। बादल तथा बिजली की कड़कड़ाहट सहजतया हमारे सुनने में आती है क्योंकि वहाँ वायु मंडल है, परन्तु सूर्य में होने वाले विस्फोट हम नहीं सुनते क्योंकि वहाँ के वायुमंडल और पृथ्वी के वायुमंडल के बीच में बड़ा अंतराल है अर्थात् सूर्य के वायुमंडल और पृथ्वी के बीच में बड़ा अंतराल है। इन दोनों के बीच कोई संबंध नहीं है। इनके मध्य मात्र आकाश है। अगर शब्द आकाश का गुण होता तो सूर्य में होने वाला विस्फोट अवश्य सुनाई देता क्योंकि आकाश सर्वत्र है। जैन दर्शन ने आकाश का गुण शब्द न मानकर अवगाहन माना है। समस्त पदार्थों को रहने का स्थान देना और किसी प्रकार की रुकावट न डालना, इसे आगम भाषा में अवगाहन कहते हैं। अवगाहन का अर्थ-मात्र इतना ही नहीं कि पृथक्-पृथक् पदार्थ अपने-अपने स्थान पर स्थित रहे, अपितु अवगाहन का अर्थ है- पदार्थ चाहे जहाँ ठहर जाय। इसी गुण के कारण पदार्थ चाहे जहाँ प्रवेश भी पा सकता है और रह भी सकता है, जैसे शीशे में प्रकाश प्रविष्ट भी हो जाय और स्थित भी हो जाय। आज के विज्ञान में यह प्रयोग सिद्ध है कि पदार्थ एक दूसरे में समाविष्ट हो जाता है। एक्सरे की किरणें, चुंबक की किरणें तथा रेडियो की विद्युत् तरंगें जो कि सूक्ष्म पदार्थ है, अन्य पदार्थ में प्रवेश पाते हुए स्पष्ट देखते हैं। एक्स-रे शरीर में से आरपार हो जाता है और सामने वाली प्लेट पर शरीर के अन्दर का फोटो खिंच जाता है। रेडियो की विद्युत तरंगें पर्वतों तक को भेदकर दूर-दूर देशों से हमारे पास चली आती हैं। जैसा कि आकाश के प्रदेशों के विवेचन में हमने स्पष्ट किया था कि आकाश के असंख्यात प्रदेश है। यहाँ प्रश्न होता है कि आकाश के असंख्यात प्रदेशों में अनन्तानन्त पदार्थ कैसे रह सकते हैं? इसका उत्तर यही है कि अनन्तानन्त पदार्थ एक दूसरे में समाकर रहते हैं। जीव तो होता ही अमूर्त है और अमूर्त इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे एक दूसरे में बिना टकराये आसानी से रह सकते हैं। मात्र मूर्त पदार्थ ही स्थान घेरते हैं और एक दूसरे से टकराते हैं। मूर्तिक पदार्थ के छह भेदों में भी सूक्ष्म स्कंध और सूक्ष्म परमाणु तो पदार्थों में समा सकते हैं। केवल मूर्तिक स्थूल पदार्थ ही टकराते हैं और एक दूसरे में नहीं समा सकते हैं। 218 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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