Book Title: Dravyavigyan
Author(s): Vidyutprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 250
________________ तेज की अधिकता होने पर उष्णवान एवं वायु की अधिकता से हल्की एवं संचरणशील और यदि आकाश का भाग अधिक हो तो खाली स्थान रूप दिखाई देगा। जैसे वर्षा के दिनों में यद्यपि वायु जलमिश्रित होती है, फिर भी कहलाती वायु ही है और गर्मी के मौसम में यद्यपि वायु में तेज या आग का मिश्रण रहता है, फिर भी कहते उसे वायु ही हैं। इसका कारण वायु की अधिकता/मुख्यता है। वनस्पति के निर्माण को हम देखें। बीज को पृथ्वी में डालकर जल से सिंचन करते हैं, उसमें से अंकुर फूटता है जो वायु को एवं सूर्य के तेज को लेकर वृद्धि को प्राप्त होता है तथा फल और फूलों से युक्त बनता है। इस प्रकार हम देखते हैं, वृक्ष के निर्माण में पृथ्वी, जल, तेज और वायु, चारों ही भूतों का योगदान रहा है। वृक्ष अपनी संपूर्णता प्राप्त कर भी इन चारों से युक्त रहता है। जैसे उसकी टहनियों में पृथ्वी अधिक है और जल कम, अत: वह कुछ ठोस है। पत्तों में उसकी अपेक्षा अधिक जल है और फूलों में उससे अधिक जल है। शेष जो ईंधन है, वह ठोस होने के कारण पृथ्वी का भाग है। फल फूलों की चमक अग्नि का भाग है और इन सबमें जो पोलापन है, वह आकाश है। अगर पोलापन नहीं होता तो उसमें कील आदि प्रविष्ट नहीं हो सकती। पोलापन में वायु भी होती है अतः कहा जा सकता है कि वृक्ष या वनस्पति इन पंचमहाभूतों का ही संयोग है। हम इन पंच महाभूतों से व्याप्त अपने शरीर को सदैव देखते ही हैं। इस प्रकार गूढ़ दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि यह संपूर्ण संसार पंच महाभूतों की ही रचना है। ___पुद्गल को और भी गहराई से जानने का अगर प्रयास किया जाय तो लगता है कि सृष्टि में इन पांच महाभूतों का ही स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। इन पंच महाभूतों का आधार भी वास्तव में “इलेक्ट्रोन और प्रोटोन" नाम वाले दो पदार्थ हैं। इनमें न्यूनाधिक संगम से ही महाभूतों का या पदार्थों का निर्माण होता है। ये इलेक्ट्रोन और प्रोटोन इतने सूक्ष्म होते हैं कि इन्हें इन्द्रियों द्वारा देखा नहीं जाता। अगर तात्त्विक दृष्टि से देखें तो सोने और लोहे में कोई अंतर नहीं होता। दोनों ही इलेक्ट्रोन और प्रोटोन के संगम से बने हैं। पदार्थों में इन दोनों तत्त्वों की न्यूनाधिकता अवश्य होती है। इन दोनों का आधार भी परमाणु है। 222 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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