Book Title: Dravyavigyan
Author(s): Vidyutprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 253
________________ भारतीय मनीषियों में मात्र चार्वाक के अतिरिक्त सभी ने आत्मा की सत्ता को स्वीकार किया है। मात्र स्वीकृति ही दी ऐसा भी नहीं है, उसके स्वरूप और विश्लेषण में अपना पूरा ध्यान केन्द्रित किया है। भिन्न-भिन्न मतों का कारण भी यही रहा। जिन्हें जो सत्य तथ्य लगा, उसे उन्होंने सिद्धांत का रूप दे दिया। उपनिषद् की दृष्टि ब्रह्मवादी दृष्टि है। उन्होंने संसार को ब्रह्म का अंश माना है। जैन दर्शन जीव को स्वतंत्र अस्तित्व युक्त मानता है। इसमें चैतन्य सहज स्वाभाविक है। जीव भी अनादि अनंत है। संसार जीव रहित कभी नहीं हो सकता। जिस प्रकार गणित में अनंत में से अनंत निकालें तो अनंत ही शेष रहेंगे, वैसे ही अनंतजीव मोक्ष को प्राप्त करे लें फिर भी अनंत जीव संसार में परिभ्रमण करते रहेंगे। ___जीव का विकास उसके स्वयं के पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। निगोद से जीव की विकास यात्रा प्रारंभ होती हुई मोक्ष तक पहुँचकर पूर्णता को प्राप्त करती है। __ शक्ति की दृष्टि से सभी जीव समान हैं, चाहे एकेन्द्रिय जीव हो चाहे पंचेन्द्रिय, बलाबल की समानता होने पर भी कुछ जीव पूर्णता को उपलब्ध कर लेते हैं और कुछ जीव भटकते रहते हैं। इसका कारण जीव की स्वाभाविक अनंत और असीम शक्ति को कुछ तो पुरुषार्थ द्वारा प्रकट कर देते हैं और कुछ जीव पुरुषार्थहीन होकर जहाँ-तहाँ भ्रमण करते रहते हैं। जीव के संबंध में जैन दर्शन की अन्य दर्शनों से अलग विलक्षण और अलौकिक मान्यता यही है कि जैन दर्शन में ईश्वर आदर्श या प्रेरक जरूर है परंतु इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। जीव स्वयं ही अपने पुरुषार्थ द्वारा अपनी मंजिल तय करता है तथा ईश्वरत्व को उपलब्ध कर लेता है। हर आत्मा परमात्मा स्वरूप है। ऐसा नहीं कि एक ही ईश्वर है और अन्य सभी भक्त के रूप में ही रहते। अपितु प्रत्येक आत्मा ईश्वर-शक्ति से संपन्न है। जैन दर्शन का आचार पक्ष की स्थापना का कारण जीव की अपनी सत्ता और शक्तियों का प्रकट करना ही है। जीव के वर्गीकरण की सूक्ष्मता को पहचान करके हम अपने आपको उन जीवों की हिंसा से विरत करें एवं अपने निज स्वरूप अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र को उपलब्ध करें। 225 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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