Book Title: Dravyavigyan
Author(s): Vidyutprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 243
________________ और संस्कार आदि के समाप्त होने पर आत्मा का भी अभाव होना चाहिये क्योंकि जैन मत इनका विनाश ही मुक्ति मानता है, परन्तु वैशेषिकों का यह तर्क उचित नहीं है। सर्वप्रथम तो ज्ञान और आत्मा में समवाय संबंध कैसे बनता है? समवाय तो एक ही है और व्यापक भी! अगर यह माने कि ज्ञान और आत्मा में समवाय दूसरे समवाय से रहता है तो इस प्रकार समवायों की अनंत श्रृंखला माननी होगी और अनंत समवाय मानने से अनवस्था दोष आएगा। यदि यह सोचें कि समवाय में समवायांतर मानने की आवश्यकता नहीं है, वह अपने आप ही रहता है तो ज्ञान और आत्मा में भी वह अपने आप रह लेगा। वैशेषिक इसे स्पष्ट करने के लिये दीपक का उदाहरण देते हैं कि दीपक का स्व पर प्रकाशक स्वभाव है, परन्तु दीपक का दृष्टांत घटित नहीं होता क्योंकि दीपक द्रव्य है और प्रकाश उसका धर्म है जबकि वैशेषिक तो धर्म और धर्मी को सर्वथा भिन्न मानते हैं। अतः यह मानना ही युक्तियुक्त है कि ज्ञान आत्मा का आगंतुक गुण नहीं, स्वाभाविक गुण है। गुण और पर्याय ही सत् का लक्षण है। षड् द्रव्यों का भिन्न भिन्न निरूपण जैन दर्शन ने सृष्टि को छ: पदार्थों में समाहित किया है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय जैन दर्शन की अपनी मौलिक धारणा है। इनके संबंध में जैन दर्शन के अतिरिक्त किसी भी दर्शन ने न तो धारणा बनायी और न सिद्धि की। मध्ययुगीन विज्ञान धर्मास्तिकाय को यद्यपि “ईथर" के नाम से अस्तित्व में लाया था, परन्तु वर्तमान के विज्ञान ने ईथर का निरसन कर दिया है। यदि धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व नहीं होता तो पदार्थों की संतुलित व्यवस्था नहीं होती और उसके अभाव में या तो पदार्थ अनंत में भटकते रहते या मात्र स्थिति ही रहती। फिर जीव और पुद्गल की मोक्ष तक ही न तो गति रहती और न स्थिति ही। लोक और अलोक का जो विभाजन है, वह भी इन दोनों द्रव्यों के कारण ही है। यहाँ यह भी स्पष्ट समझना चाहिये कि ये दोनों उदासीन सहायक है। 215 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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