________________
दूसरा समाधान यह है कि “निक्रियाणि च"। इस सूत्र द्वारा धर्म से लेकर आकाश तक के द्रव्य को निष्क्रिय कहने पर जैसे अवशिष्ट बचे जीव और पुद्गल को स्वतः सक्रियत्व प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार काल भी सक्रिय बनता।
आकाश से पहले भी काल को नहीं रख सकते। “आकाश तक एक द्रव्य है" इस सूत्र के अनुसार अगर काल को आकाश से पहले रखते तो काल भी एक द्रव्य होता। इन सभी दोषों से बचने के लिए काल का अलग से ग्रहण किया गया है।
काल का लक्षणः-उत्तराध्ययन में काल का लक्षण वर्तना बताया गया है।'
तत्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने काल के लक्षण वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व माने है।'
वर्तना क्या है:-"प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक पर्याय में प्रति समय जो स्वसत्ता की अनुभूति करता है, उसे वर्तना कहते है। प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और धौव्य का अनुभव करता है। धर्मादि द्रव्य अपनी अनादि या आदिमान पर्यायों में उत्पाद व्ययध्रौव्यरूपसे परिणत होते रहते हैं। यही स्वसत्तानुभूत वर्तना है। सादश्योपचार से प्रतिक्षण वर्तना ऐसा अनुगत व्यवहार होने से यद्यपि वह एक कही जाती है, पर वस्तुतः प्रत्येक द्रव्य की अपनी-अपनी वर्तना अलग होती है।
वर्तना का अनुमान हम इस प्रकार से लगा सकते हैं। जैसे चावल को पकाने के लिए बर्तन में डाला, वह आधा घण्टे में पक गया तो यह नहीं समझना चाहिये कि 29 मिनिट तो वह ज्यों का त्यों रहा, मात्र अन्तिम समय में पक कर भात बन गया। उसमें प्रथम समय से ही सूक्ष्मरूप से पाकक्रिया प्रारंभ थी, यदि प्रथम समय में पाक न हुआ होता तो दूसरे तीसरे क्षणों में संभव ही नहीं हो सकता था और इस तरह पाक का अभाव हो जाता।' 1. त. सू. 5-7 2. त. सू.5.6 3. स. सि. 5.39602 4. उत्तराध्ययन सूत्र 28.10 5. "वर्तना परिणाम क्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य" त. सू. 5.22 6. त. रा. बा. 522 4.477 7. त. रा. वा. 5.22.5.477
170
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org