________________
परस्पर एक दूसरे पर निर्भर रहते हों या एक दूसरे में परिवर्तित हो सकते हों। इससे जैन दर्शन के इस सिद्धांत की पुष्टि होती है कि सभी द्रव्य स्वतंत्र परिणमन करते हैं और कोई द्रव्य किसी द्रव्य में द्रव्यांतर नहीं करता।' जैन दर्शन लोक को परिमित मानता है और अलोक को अपरिमिता' इसकी पुष्टि वैज्ञानिक एडिंग्टन ने भी की है:
"The World is closed in space dimensions. I shall use the phrase arrow to express this one way properly which has on analogue in space,"
दिक् आयामों में ब्रह्माण्ड परिबद्ध है। एक दिशता को ठीक प्रकार से प्रस्तुत करने के लिए मैं तीर संकेत (मुहावरे) को प्रयुक्त करुंगा, जिसका दिक् में कोई सादृश्य नहीं है।
विश्वविख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन, डी. सीटर पोइनकेर आदि की लोक अलोक के विषय में भिन्न-भिन्न मान्यताएं हैं। इन मान्यताओं एवं सिद्धांतों का समन्वय कर देने पर जैन दर्शन में वर्णित लोकालोक का स्वरूप स्वतः फलित होने लगता है।
आइंस्टीन के सिद्धांतानुसार विश्व बेलनकार, वक्र, एकबद्ध आकार को धारण करने वाला व सांत है। जैन दर्शन भी लोक आकाश को वक्र तथा सांत मानता है। आइंस्टीन के मंतव्यानुसार समस्त आकाश स्वयं शांत और परिबद्ध है, जबकि जैन दर्शन के अनुसार समस्त आकाश द्रव्य तो अनंत, असीम और अपरिमित है, मात्र लोकाकाश सांत व बद्ध है। क्योंकि लोकाकाश में व्याप्त धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय सांत परिमित तथा बद्धाकार वाले है। इस कारण लोक भी सांत परिमित तथा बद्धाकार वाला हो जाता है।'
आईस्टीन के विश्व व्यापक सिद्धांत में समस्त आकाश अवगाहित है, परंतु डच ज्योतिवैज्ञानिक “डी. सीटर" ने इसे स्वीकार नहीं किया है। शून्य (पदार्थ रहित) आकाश की विद्यमानता को संभावित सिद्ध किया है।' 1. जैन प्रकाश 22.12.68 पृ. 56 ले. कन्हैयालाल लोढा 2. “आगास वज्जिता सब्वे लोगम्मि चेव णत्थि बहि" गो.जी. 583. 3. जैन प्रकाश 22.12.68 पृ. 56 ले. कन्हैयालाल लोढा 4. फ्रेम युक्लीड टू एडिंग्टन पृ. 126.
159
___Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org