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जैन दर्शन के अनुसार स्वतंत्र द्रव्य आकाश की दिशा एक काल्पनिक विभाग है।
ठाणांग में दिशाएं छ हैं एवं एक अपेक्षा से दिशाएं दस हैं- पूर्व, पूर्वदक्षिण, दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम, पश्चिम, पश्चिम-उत्तर, उत्तर, उत्तर-पूर्व, ऊर्ध्व, अधस् । 2
दो दिशाओं के मध्य कोने में होने से विदिशा दो दिशा के संयुक्त नाम से भी पुकारी जाती है।
न्याय वैशेषिक और आकाश :- जैन दर्शन की मान्यतानुसार आकाश का विवेचन करने के पश्चात् हम देखेंगे कि अन्य भारतीय दर्शनों ने आकाश को किस प्रकार से विश्लेषित किया है।
वैशेषिक दर्शन में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, देश, आत्मा और मन को द्रव्य माना है। इन द्रव्यों के अन्तर्गत आकाश को भी स्वतंत्र द्रव्य के रूप में मान्यता दी है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार इनके अन्दर शरीरधारी और अशरीरी वस्तुओं का समावेश हो जाता है।
आकाश सर्वव्यापक बृहत्तम विस्तार युक्त है । ' आकाश सर्वव्यापक होते हुए भी शब्द का उत्पादक है। S
आकाश एक सकाम, निरंतर, स्थायी, तथा अनंत द्रव्य है। यह शब्द का अधिष्ठान है। यह रंग, गंध, और स्पर्श से रहित है। अपनयन की प्रक्रिया द्वारा यह सिद्ध किया जाता है कि शब्द आकाश का विशिष्ट गुण है । " यह निष्क्रिय है । समस्त भौतिक द्रव्य इसके साथ संयुक्त माने जाते है।' परमाणु अत्यंत सूक्ष्म हैं। परमाणु एक दूसरे के पास आकर या संयुक्त होकर किसी बड़े पदार्थ का निर्माण नहीं करता। वे एक दूसरे से अलग रहते हैं फिर भी किसी प्रकार से मिलकर एक व्यवस्था को स्थिर रखते हैं तो मात्र आकाश
1. ठाणाग 6.37
2. ठाणांग 10.31
3. भारतीय दर्शन भाग 2 डा. राधाकृष्णन् पृ. 187
4. प्रशस्तपादकृत पदार्थ धर्म संग्रह पृ. 22
5. तर्कदीपिका पृ. 14
6. वैशेषिकदर्शन 2.1.27.29.31
7. न्यायसूत्र 4.2.21.22
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