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निर्माता है वही आत्मा है। इस शरीर का कोई स्वामी अवश्य होना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियाँ तो उपकरण या साधन मात्र हैं। जैसे घट निर्माण में सहयोगी औजारों का मालिक कुम्हार है, वैसे ही इन इन्द्रिय रूप औजारों का स्वामी
आत्मा है। (5) यह शरीर तो जड़ है; और जड़ का भोक्ता चेतन ही होता है।' (6) रूप, रस आदि अनेक प्रकार के ज्ञान किसी आश्रय-भूत द्रव्य में ही
रहते हैं। जैसे रूप घट का आश्रित है, वैसे ही ज्ञान का आश्रय आत्मा
(7) ज्ञान, सुख आदि का कोई न कोई उपादान कारण अबश्य होना चाहिए
जैसे घट का उपादान मिट्टी है, इसी तरह ज्ञान, सुख आदि का जो उपादान कारण है और ज्ञानी, सुखी आदि बनता है, वही आत्मा है।'
(उपादान कारण को हम द्वितीय अध्याय में स्पष्ट कर आये हैं।) (8) चाहे जीव हो या अजीव, समस्त पदार्थ द्विपदावतार (सप्रतिपक्ष) होते
हैं।' जहाँ जीव है वहाँ अजीव भी है यह अजीव निषेधात्मक है। जिस निषेधात्मक शब्द का प्रतिपक्षी अर्थ न हो तो समझना चाहिये कि वह या तो व्युत्पत्तिसिद्ध शब्द का निषेध नहीं करता या फिर शुद्ध शब्द का किन्तु किसी रूढ शब्द या संयुक्त शब्द का निषेध करता है, जैसे
अखरविषाणा' . (9) सामान्यतोदष्ट अनुमान द्वारा भी आत्मा की सिद्धि हो सकती है। स्वयं
की क्रिया जैसी क्रिया अन्य शरीर में भी देखकर आत्मा की सिद्धि हो सकती है। इस प्रकार की क्रिया देखकर हम आत्मा के अस्तित्व का अनुमान कर सकते हैं। प्रिय में आकर्षण और अप्रिय में विकर्षण का निर्णायक आत्मा ही बनती है। परंतु यदि घट पर भयंकर सर्प चढ़
जाय तो भी घट में आकर्षण या विकर्षण जैसा कोई अंतर नहीं आता। 1. षड्दर्शन टी. 49.123 2. षड्दर्शन टी. 49.125 २. ठाण 2.1, 4. षड्दर्शन. टी. 49.125 5. वही 49.126
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