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यद्यपि रुकना दृष्टिगत नहीं हुआ पर होता अवश्य है। इस सूक्ष्म तथा स्थूल रूकने में जो सहायक तत्व हैं, उसे अधर्मास्तिकाय कहते हैं।'
इस पर से यह न समझें कि जो सदा सर्वदा से रूका हुआ है उसमें भी अधर्मास्तिकाय का सहयोग है। अधर्मास्तिकाय उसे सहयोग करती है, जो चलते-चलते ठहरे। जो चलता ही नहीं, उसे ठहराने का प्रश्न ही नहीं है। जैसे आकाश चलता ही नहीं तो उसे ठहराने का प्रश्न ही नहीं है।
__ पंचास्तिकाय में कुंदकुंदाचार्य के अनुसार न धर्मास्तिकाय गमन करता है और न अधर्मास्तिकाय स्थिर करता है। जीव और पुद्गल स्वयं अपने परिणामों से गति और स्थिति करते हैं।'
फिर प्रश्न होता है कि तब धर्म और अधर्म को मानने का क्या कारण है? इसका समाधान अमृतचंद्राचार्य देते हैं। उनके अनुसार “अगर धर्म और अधर्म गति और स्थिति के मुख्य हेतु मान लिये जाय तो जिन्हें गति करनी है, वे गति ही करेंगे और जिन्हें स्थिति रखनी है वे स्थिति ही रखेगें। दोनों गति और स्थिति एक पदार्थ में नहीं पायी जाती जबकि गति और स्थिति दोनों ही एक धर्म में पाये जाते हैं। अतः अनुमान है कि ये व्यवहारनय द्वारा स्थापित उदासीन कारण है।''
अधर्मास्तिकाय की उपयोगिताः-गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा भगवन्! अधर्मास्तिकाय से जीव को क्या लाभ होता है? भगवान ने कहाअगर अधर्मास्तिकाय नहीं होता तो जीव खड़ा कैसे होता? बैठना, मन को एकाग्र करना, मौन करना, निस्पंद होना, करवट लेना आदि जितने भी स्थिर भाव है, वे अधर्मास्तिकाय के कारण है।
सिद्धसेन दिवाकर धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के स्वतंत्र द्रव्यत्व को आवश्यक नहीं मानते, वे इन्हें द्रव्य की पर्याय मात्र स्वीकार करते हैं।'
धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय के अस्तित्व की सिद्धिः- प्रश्न होता है आकाश 1. पदार्थ विज्ञान : जिनेद्र वर्णी पृ. 190 2. पं. का. 89 3. पं. का. ता. वृ.89. 4. भगवती 13.4.25 5. “प्रयोगविनसाकर्म, तद्भाविस्थितिस्तथा। लोकानुभाववृतांत, किं धर्माधर्मयोः फलं: नि.द्वा. 24
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