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साथ ही उपलब्धि प्रसिद्ध हैं, क्योंकि तीर्थंकर परमात्मा आदि द्वारा प्रणीत आगमों में धर्म और अधर्म की उपलब्धि होती है। अनुमान से भी गति और स्थिति में साधारण निमित्त के रूप में उपलब्धि होती है।
यहाँ एक प्रश्न यह भी होता है कि जिस प्रकार ज्ञानादि आत्मपरिणाम और दही आदि पुद्गलपरिणामों की उत्पत्ति परस्पराश्रित हैं, उसके लिये धर्म और अधर्म जैसे किसी अतीन्द्रिय द्रव्य की आवश्यकता नहीं है। अकलंक उनके समाधान में कहते हैं- ज्ञानादि पर्यायों की उत्पत्ति के लिए “काल" नामक साधारण बाह्य कारण की आवश्यकता है उसी तरह धर्म और अधर्म की भी गति और स्थिति के लिये आवश्यकता है।
अमूर्त होने से ही धर्म और अधर्म का अभाव नहीं किया जाता क्योंकि अमूर्त प्रधान अहंकार (सांख्य के अनुसार) आदि विकार रूप से परिणत होकर पुरुष के भोग में निमित्त होता है, विज्ञान अमूर्त होकर भी नाम रूप की उत्पत्ति का कारण होता है (बौद्ध)। अदृष्ट अमूर्त होकर भी पुरुष के उपभोग और साधनों में निमित्त होता है, उसी तरह धर्म और अधर्म भी अमूर्त होने पर भी गति और स्थिति में साधारण निमित्त माने जाने चाहिये।'
इस प्रकार अगर धर्म और अधर्म की मान्यता नहीं होती तो शुद्धात्मा आज तक उड़ान ही भरती रहती और उसकी इस अनंत यात्रा का कभी अंत नहीं होता। क्योंकि आकाश का कहीं अंत नहीं है, परंतु धर्म और अधर्म के अस्तित्व के कारण मुक्तात्मा लोक के अग्रभाग पर जाकर स्थिर हो जाती है क्योंकि गतिसहायक धर्मास्तिकाय की अलोक में अनुपस्थिति है और ग्रह उपग्रह आदि का परस्पर घर्षण भी अधर्मास्तिकाय के कारण संभव नहीं है क्योंकि अपनी ही परिधि में निरंतर प्रमणशील इनका संतुलन अधर्मास्तिकाय स्थापित कर देता है। ____ आकाशास्तिकाय का लक्षण और स्वरूपः-अस्तिकाय में तीसरा अस्तिकाय द्रव्य आकाशास्तिकाय है। ठाणांग में इसका विवेचन और लक्षण इस प्रकार बताया है। आकाशास्तिकाय अवर्ण, अगंध, अरस, अस्पर्श, अरुप, अजीव, शाश्वत, अवस्थित तथा लोक का एक अंशभूत द्रव्य है। 1. त. रा.वा. 5.17.28. 464 2. वही 5.17.36.465 3. वही 5.17.41.466
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