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समीक्षाः-वैदिक और जैन दर्शन द्वारा मान्य लोक के विवेचन में समानता और असमानता दोनों है। वैदिक दर्शन भोगभूमि और कर्मभूमि मानता है और जैन भी। द्वीपों में समानता और असमानता दोनों है। समुद्र, क्षेत्र, पर्वत आदि की अपेक्षा से भिन्नता भी है और समानता भी।'
भारत वर्ष को दोनों ने कर्मभूमि मानते हुए सर्वश्रेष्ठ भूमि बताया है।
लोक के भेद प्रभेद:-क्षेत्रलोक तीन प्रकार का होता है- अधोलोक क्षेत्रलोक, तिर्यक्लोक क्षेत्रलोक एवं ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोका'
अधोलोक क्षेत्रलोक सात प्रकार का है:-रत्नप्रभापृथ्वी, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, महातमःप्रभापृथ्वी अधोलोक
तिर्यक्लोक क्षेत्र लोक:-यह असंख्यात प्रकार का है। इसमें जंबूद्वीप आदि शुभ नामवाले द्वीप और लवणोद आदि शुभनामवाले समुद्र है। लोक में जितने भी शुभनाम है, उन सभी नामों वाले वे द्वीप समुद्र हैं। जम्बूद्वीप से स्वयंभूरमण पर्यंत असंख्यात द्वीप समुद्र इस तियक्क्षेत्रलोक में हैं।'
वे सभी द्वीप और समुद्र दुगुने-दुगने व्यासवाले पूर्व पूर्व द्वीप और समुद्र को वेष्टित करने वाले और चूडी के आकार वाले है। अर्थात् इन द्वीप और समुद्रों का विस्तार और रचना नगरों की तरह न होकर उत्तरोत्तर वे द्वीप और समुद्र एक दूसरे को घेरे हुए हैं।'
उन सभी के बीच गोल और लाख योजन विस्तार युक्त जम्बूद्वीप है जिसके मध्य में नाभि की तरह मेरू पर्वत स्थित है। जम्बूद्वीप में सात क्षेत्र है और उन सात क्षेत्रों में एक भरत क्षेत्र भी है। (जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार इसी भरतक्षेत्र के हम निवासी है।) इस भरत क्षेत्र का विस्तार 1. गणितानुयोग प्रस्तावना पृ. 88. 2. भगवती 11.10.3 एवं त.सू. 3.! 3. भगवती 11.10. 4. त.सू. 3.7 5. म.सि. 3.7.379. 6. "ढिद्विविष्कम्माः पूर्व पूर्व परिक्षेपिणो वलयाकृतय.. त.सू. 3.8 7. स.मि. 3.8.381 8. त.सू. 3.9 9. त.मू. 3.10
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