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से औपशमिक भाव होता है।' सम्यग्दर्शन का घात इन तीन दर्शनमोहनीय और चार अनंतानुबंधी कषाय के कारण ही होता है। इन सातों प्रकृतियों के उपशम से तत्वरुचि प्रकट होती है, उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। शुभ और अशुभ क्रियाओं में क्रमशः प्रवृत्ति और निवृत्ति को चारित्र कहते हैं। चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम से औपशमिक चारित्र प्रकट होता है। 2
क्षायिक भावः - कर्मों का सर्वथा आत्मा से अलग हो जाना, क्षय है । कतक ( फिटकरी ) डालने से निर्मल हुए पानी को दूसरे बर्तन में डालने से जैसे कीचड़ का अत्यन्त अभाव हो जाता है ।
यह क्षायिक भाव नवभेद युक्त है। ज्ञान दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, सम्यक्त्व और चारित्र ! ' समग्र ज्ञानावरण, दर्शनावरण, दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, वीर्यान्तराय, दर्शनमोह व चारित्र मोह के आत्यन्तिक क्षय होने पर इन क्षायिक भावों का उदय होता है। दानादिलब्धियों के कार्य के लिए शरीर नाम व तीर्थंकर नाम के उदय की अपेक्षा होती है। चूँकि सिद्धों में इनका उदय नहीं है, अतः उनमें ये लब्धियाँ अव्याबाध अनन्तसुख रूप से रहती है। जैसे - केवल ज्ञान रूप में अनन्तवीर्य । '
ये नौ क्षायिक भाव संसार ( केवली ) और मोक्ष दोनों में उपलब्ध हैं। औपशमिक और क्षायिक भाव भव्य जीव में ही पाये जाते हैं । "
मिश्रः - इसे क्षायोपशमिक भाव भी कहते हैं। यह भाव कर्मों के आंशिक उपशम और आंशिक क्षय से पैदा होता है। जिस प्रकार फिटकरी आदि के प्रयोग से जल में कुछ कीचड़ का अभाव हो जाता है और कुछ बना रहता है । "
क्षायोपशमिक के 18 भेद हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनपर्यविज्ञान, मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, विभंग ज्ञान, चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन,
1. स. सि. 2.3257.
2. सभाष्यतत्वार्थाधिगम सूत्र 2.3.77
3. स. सि. 2.1.252.
4. त. सू. 2.4
5. त. रा.वो. 2.4.1-7.105-106
6. स. सि. 2.1.253.
7. स. सि. 2.1.252
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