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लोक अलोक के मध्य विभाजक रेखा भी बनती है।
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व पृथक् है, अतः भिन्न हैं, पर दोनों एक ही क्षेत्रावगाही होने के कारण अविभक्त भी हैं। साथ ही संपूर्ण लोक में गति आदि में अनुग्रह करते हैं अतः लोकप्रमाण भी है। भगवती के अनुसार लोक के तीनों भागों का धर्मास्तिकाय स्पर्श करता है। अधोलोक धर्मास्तिकाय के आधे से अधिक भाग को तिर्यग्लोक असंख्येय भाग को, ऊर्ध्वलोक कुछ कम धर्मास्तिकाय के आधे भाग का स्पर्श करता है। 2 भगवती में गौतम स्वामी पूछते हैं कि धर्मास्तिकाय द्वारा जीवों के क्या गतिविधि होती है ? भगवान कहते हैं- धर्मास्तिकाय द्वारा ही जीवों के आगमन, गमन, उन्मेष, (नेत्र खोलना ) मनोयोग, वचनयोग, और काययोग की प्रवृत्ति होती है। इसके अतिरिक्त भी जितने चलभाव हैं वे सब धर्मास्तिकाय द्वारा प्रवृत्त होते हैं। धर्मास्तिकाय का लक्षण गतिरूप है । "
गति में उदासीन सहायता धर्म द्रव्य का लक्षण है, परंतु यह स्वयं प्रेरित नहीं करता। जैसे बिजली के तार बिजली को, रेल की पटरी रेल को चलने के लिए प्रेरित नहीं करती अपितु उदासीन भाव से सहायक मात्र होती है, उसी प्रकार धर्मास्तिकाय भी उदासीन सहायक मात्र बनता है।
धर्मास्तिकाय जैन दर्शन की अपनी मौलिक देन है। किसी भी दर्शन में धर्मास्तिकाय संबंधी चिंतन चर्चा आंशिक भी उपलब्ध नहीं होती।
प्रमेय कमलमार्तण्ड के अनुसार अनेक द्रव्य की एक साथ प्रवृत्ति या गति होना ही धर्म द्रव्य की यथार्थता और द्रव्यता को प्रमाणित करता है। उनके अनुसार सभी जीवों और पुद्गल द्रव्यों की पृथक्-पृथक् गतियों के लिये एक सामान्य और आन्तरिक परिस्थिति पर निर्भर होना अनिवार्य है। जैसे एक तालाब के पानी से असंख्य मछलियों की गति निर्भर करती है । 1
जिस प्रकार स्वयं चलने में समर्थ लंगड़े को लाठी सहारा देती है या दर्शन समर्थ नेत्र को दीपक का सहारा होता है उसी प्रकार स्वयं गति परिणत जीवों को व पुद्गलों को धर्म गति में सहायता प्रदान करता है। लंगडे व्यक्ति
12. पं. का. गाथा 87
3. भगवती 13.4.24
4. प्रमेयकमल मार्तण्ड परि. 4.10 पृ. 623
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