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स्थिति 22 हजार वर्ष की है।
इन सभी स्थावर जीवों का श्वास काम विषम अर्थात् अनिश्चित है।
ये आहार के अभिलाषी प्रतिक्षण रहते हैं।' द्रव्य से अनंतप्रदेशी, क्षेत्र से छः दिशाओं में, काला, नीला, पीला, लाल, सफेद वर्ण का, सुरभि गंधदुरभिगंध का, तिक्त्यादि पाँचों रसों का, कर्कशादि आठों स्पर्शों का आहार लेते हैं। असंख्यातवें भाग का आहार और अनंतवें भाग का स्पर्श करते हैं। आहार किये हुए पुद्गल साता असाता विविध प्रकार से बार-बार परिणत होते रहते हैं। __इन सभी की वेदना समान होती है। असंज्ञी होते हैं अर्थात मन रहित होते हैं। मायी और मिथ्यादृष्टि होने के कारण उन्हें नियम से आरंभिकी आदि पाँचों क्रियाएँ लगती रहती हैं। संसारी आत्मा संज्ञी और असंज्ञी अर्थात् मन रहित और मन सहित ऐसे दो प्रकार की है।'
वनस्पति सजीव है, हजारों वर्ष पूर्व की भगवान महावीर की इस घोषणा को प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र वसु ने सन् 1920 में प्रमाणित किया था।
वनस्पति-'आचारांग' में मनुष्य और वनस्पति की स्पष्ट तुलना की गयी है। "मैं कहता हैं मनुष्य भी जन्मता है वनस्पति भी। मनुष्य भी बढ़ता है, वनस्पति भी बढ़ती है। मनुष्य भी चेतनयुक्त है, वनस्पति भी चेतनयुक्त है। छिन्न होने पर मनुष्य और वनस्पति दोनों म्लान होते हैं। मनुष्य और वनस्पति दोनों आहार करते हैं। मनुष्य भी अनित्य है वनस्पति भी अनित्य है, दोनों अशाश्वत हैं।"
स्पंदन. Movement
साधारणतः वनस्पतियाँ अपने स्थान पर ही रहती है। उनकी गति तने, पुष्प, पत्रादि की वृद्धि के रूप में या संवेदन से होने वाले हलन चलन के रूप में होती है। छुईमुई के पौधे को छूते ही उसमें हलन चलन प्रारंभ हो जाती है। सूर्यमुखी सदैव सूर्य की ओर ही मुँह रखता है। सनड्रयू और वीनस 1. भगवती 1.1.12,13 पृ. 27.28. 2. भगवती 1.2.7 पृ. 47-48. 3. त.सू. 2.11. 4. आचारांग सूत्र 1.5.56
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