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सम्यक्त्व मिथ्यात्वः- जिसका उदय मिले हुए परिणामों के होने में निमित्त है, जो न केवल सम्यक्त्व रूप कहे जा सकते हैं और न केवल मिथ्यात्व रूप, किन्तु उभयरूप होते हैं, वह मिश्रमोहनीय कर्म है। इसके लिए उदाहरण जल से धोने आदि के कारण अर्धशुद्ध मंद शक्ति वाले कोदों का दिया जाता है।'
मूल प्रकृति के आठ भेद हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराया'
ज्ञानावरणीय- आत्मा के ज्ञान गुण को आच्छादित करने वाला आवरण ज्ञानावरणीय कहलाता है।' आँख पर पट्टी बाँधने के कारण नेत्रों की पदार्थों को जानने की जो शक्ति रूक जाती है, उसे ज्ञानावरणीय कहते हैं।
यह कर्म ज्ञान को आच्छादित करता है, समाप्त नहीं। ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच उत्तरप्रकृतियाँ हैं।'
दर्शनावरणीयः- पदार्थ के सामान्य धर्म का बोध जिसके कारण रूक जाय, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। जिस प्रकार पहरेदार शासक को देखने के लिए उत्सुक व्यक्ति को रोक देता है, उसी प्रकार दर्शनावरण कर्म की दर्शनशक्ति पर आवरण डालकर उसे रोक देता है।' इसकी नौ उत्तरकर्मप्रकृतियाँ है।'
वेदनीयः-जिस कर्म के कारण सुख-दुख का संवेदन आत्मा को होता है, उसे वेदनीय कहते हैं। वेदनीय कर्म की साता और असाता दो प्रकृतियाँ होती हैं।'
सातावेदनीय कर्म के कारण जीव को देवादि गतियों में शरीर और मन संबंधी सुख मिलता है। असाता वेदनीय के उदय से नरकादि गतियों में मन वचन और काया संबंधी पीड़ा भोगनी पड़ती हैं।" 1. स.सि.8.9.749. 2. त.सू. 8.4 4 ठाणांग 8.5 तथा उत्तराध्ययन 33.2.3. 3. स.सि. 8.3.736. 4. गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. 21. 5. त.सू. 8.6 एवं उत्तराध्ययन 33.4. 6. "अनानालोकनम्" स.सि. 8.3.736. 7. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गा.21 8. उत्तराध्ययन 33.5.61 9. "वेदस्य सदसल्लक्षणस्य सुखदुःख संवेदनम्" स.सि. 8.3.736., उत्तराध्ययन 33.7. 10. स. सि. 8.8.746.
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