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पाँच लब्धि-दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य, सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम।' उदय प्राप्त सर्वघाती स्पर्धकों का क्षय होने से और अनुदय प्राप्त सर्वघाती स्पर्धकों का सदवस्था रूप उपशम होने पर तथा देशघाती स्पर्धकों का उदय होने पर मिश्र अर्थात् क्षायोपशमिक भाव होता है।
औदयिक भावः-मन, वचन और काय की विभिन्न क्रियाओं को करने से शुभ, अशुभ कर्मों का संचय आत्म प्रदेशों में होता रहता है, ये कर्म काललब्धि से पक कर जब द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से फल प्रदान करते रहते हैं, तब यह उनकी उदय अवस्था है।'
औदयिक भावों के इक्कीस भेद बतलाये हैं। चार गति-देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक, चार कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ, तीन लिंग- स्त्री लिंग, पुरुष लिंग और नपुंसक लिंग, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयत, असिद्धत्व एवं छः लेश्याकृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल। ये औदयिक भाव के इक्कीस भेद हैं।' भगवती सूत्र में छ: भाव बताये हैं-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक, 'सन्निपातिका'
औदयिक भाव को दो प्रकार का बताया- उदय और उदयनिष्पन्न! उदय का अर्थ आठ कर्म प्रकृति का फल प्रदान करना है। उदयनिष्पन्न के दो भेदजीवोदय निष्पन्न और अजीवोदय निष्पन्न। कर्म के उदय से जीव में होने वाले नारक, तिर्यंच आदि पर्याय जीवोदयनिष्पन्न एवं कर्म के उदय से अजीव में होने वाले पर्याय अजीवोदयनिष्पन्न कहलाते हैं। जैसे औदारिकादि शरीर और औदारिकादि शरीर में रहे हुए वर्णादि। ये औदारिक शरीरनामकर्म के उदय से पुद्गलद्रव्य रूप अजीव में निष्पन्न होने से अजीवोदयनिष्पन्न कहलाते हैं।
पारिणामिक भावः-आत्मा का पारिणामिक भाव ही अजीव से उसे पृथक् सिद्ध करता है। पारिणामिक भाव आत्मा का स्वभाव है,अन्य सारेभाव कर्मजन्य
और कर्मक्षय के उदय से होते हैं जबकि पारिणामिक भाव कर्म के उदय, 1. त.सू. 2.5. 2. त.रा.वा. 2.5.3.106 (विस्तृत विवेचन हेतु तत्त्वार्थ टीका देखें) 3. स.सि. 2.1.252 4. त.सू. 2.6. 5. भगवती 17.1.28. 6. भगवती 17.1.29.
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