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गुणधराचार्य की कषायपाहुड की मूल 15-20 की गाथाओं में जिन मार्गणाओं के अल्प बहुत्व के रूप में जघन्य उत्कृष्ट काल कहा गया है, इसमें उत्कृष्ट काल के अल्पबहुत्वं में कहा है "चक्षुदर्शनोपयोग के उत्कृष्ट काल से चक्षुज्ञानोपयोग का काल दुगुना है।" उससे श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा, इन्द्रियों का ज्ञानोपयोग, मनोयोग, वचनयोग, काययोग आदि स्पर्शनेन्द्रिय ज्ञानोपयोग का उत्कृष्ट काल क्रमशः विशेष अधिक है। स्पर्शनेन्द्रिय के ज्ञानोपयोग से अवायज्ञान का उत्कृष्ट काल दुगुना है! इससे ईहा ज्ञानोपयोग का उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है! इससे श्रुतज्ञान का, श्रुतज्ञान से श्वासोच्छवास का उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है।
केवल ज्ञान केवलदर्शन कषाय सहित जीव के शुक्ल लेश्या का उत्कृष्ट काल स्वस्थान में समान होते हए भी प्रत्येक का उत्कृष्ट काल श्वासोच्छ्वास से विशेष अधिक है।
केवलज्ञान के उत्कृष्ट काल से एकत्व वितर्क अविचार ध्यान का उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। इनसे पृथक्त्व वितर्क सविचार ध्यान का काल दुगुना है। इससे प्रतिपाती सूक्ष्म संपराय उपशम श्रेणी में चढने वाले का; सूक्ष्म संपराय, क्षपक संपराय का उत्कृष्ट काल क्रमशः विशेष अधिक है।
सूक्ष्म सांपरायिक जीव के उत्कृष्ट काल से मान कषाय का उत्कृष्ट काल दुगुना है। इससे क्रोध, मान, माया, लोभ, क्षुद्रभवग्रहण, कृष्टिकरण, संक्रामक का उत्कृष्ट काल क्रमशः विशेष अधिक है। इससे उपशांत कषाय का काल दुगुना है। इससे क्षीण कषाय का, इससे चारित्र मोहनीय के उपशामक का, इससे चारित्रमोहनीय के क्षपक का काल विशेष अधिक है।'
इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि दर्शनोपयोग संबंधी सभी इन्द्रियों, मन, वचन काया, अवाय, ईहा, व श्रुतज्ञान इनका उत्कृष्ट काल श्वासोच्छ्वास के उत्कृष्ट काल से कम होता है। केवलज्ञानोपयोग व केवल दर्शनोपयोग का उत्कृष्ट काल एक श्वासोच्छ्वास से अधिक और दो श्वासोच्छ्वास के उत्कृष्ट काल से कम होता है। अर्थात् इस समय तक में उपयोग बदल जाता है। अतः जहाँ केवलज्ञान व केवलदर्शन के उपयोग का समय अन्तर्मुहूर्त दिया है, वहाँ यह अन्तर्मुहूर्त से श्वासोच्छ्वास के उत्कृष्ट काल से कम ही समझें।' 1. कषायपाहुड़: 15-20. 2. कुसुम अभि. ग्रन्थ- कन्हैयालाल लोढा खं. 4 पृ. 288.
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