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द्रव्य है, अतः वह भी अन्य द्रव्यों की तरह नित्य है और परिणामी भी।
परिणामी क्या है? इसका तत्वार्थ में समाधान है। द्रव्य का प्रति समय बदलते रहना परिणाम है।'
परिणाम स्वाभाविक और प्रायोगिक दो प्रकार से होता है। जीव और पुद्गल इनमें स्वाभाविक और प्रायोगिक दोनों पर्यायें (परिणमन) पायी जाती हैं। इस परिणमन की अपेक्षा जीव अनित्य है। द्रव्य की अपेक्षा नित्य व अपरिणामी एवं पर्याय की अपेक्षा जीव अनित्य और परिणामी है।
आत्मा कर्ता भोक्ता हैं:-उत्तराध्ययन में आत्मा को नानाविध कर्मों का कर्ता कहा है।' भोक्ता के रूप में अनेक जाति, योनि में जन्म लेता है।' पापकर्म का कर्ता उसके फल का भोक्ता बने बिना मुक्त नहीं हो सकता।
भगवती सूत्र में जीव स्वकृत कर्म फल का भोक्ता है या नहीं, इस विषय में स्पष्ट विवेचन है।
गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि “जीव स्वकृत कर्म का भोक्ता है या नहीं? परमात्मा समाधान करते हैं- किसी को भोगता हैं, किसी को नहीं। गौतम की जिज्ञासा शांत नहीं हई। उन्होंने पुनः पूछा-ऐसा क्यों? तब भगवान ने कहा-जो वर्तमान में उदय अवस्था में हैं, उन्हें भोगता है;जो सत्ता (बेलेंस) में हैं, उन्हें नहीं। इससे यह न समझे कि वे भविष्य में भोगने नहीं पड़ेंगे। भोगने तो उस को पड़ेंगे ही जो कर्ता हैं।'
इस प्रश्न से लगता है, उस समय कुछ ऐसी मान्यता रही होगी कि कर्ता और भोक्ता भिन्न-भिन्न हैं या ईश्वर की कृपा हो जाय तो अशुभ का परिणाम भुगतना नहीं पड़ेगा।
भगवान के समाधान से यह व्यावहारिक असंतुलन भी खत्म हुआ कि 1. त.सू. 5.42 2. न्यायवि.टी. 1.10 3. भगवती 1.3.7 4. उत्तरध्यियन 3.2 5. उत्तराध्ययन 3.3 6. उत्तराध्ययन 3.4 7. भगवती 1.2.2.3.
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