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संकोच विस्तार युक्त होकर घटादि पात्र में दीपक की तरह स्वदेह प्रमाण है।'
नित्यता तथा परिमाणी अनित्यताः-आचारांग सूत्र का प्रारंभ ही इस सूत्र से हआ है कि आत्मा परिणमनशील है। जैसे कुछ मनुष्यों को यह संज्ञा नहीं होती कि "मैं पूर्व दिशा से आया हूँ 'पश्चिम दिशा से आया हूँ' उत्तर, ऊर्ध्व, अधो, या किसी अन्य दिशा से आया हूँ या अनुदिशा से आया हूँ।"
___ इस अनुसंचरण का इतना महत्व बताया कि इसे “आत्मवादी' का लक्षण तक बता दिया।' पर्याय की दृष्टि से आत्मा अनित्य है, परंतु द्रव्य की अपेक्षा नित्य है। जैसे संसारी पर्याय की दृष्टि से नष्ट, मुक्त के रूप में उत्पन्न और द्रव्यत्व की दृष्टि से अवस्थित है।'
सांख्य आत्मा (पुरुष) को सर्वथा अपरिणामी मानता है।'
मनुष्यत्व से नष्ट हुआ जीव देवत्व को उपलब्ध होता है, पर इसमें जीव न उत्पन्न होता है, न नष्ट। पर्याय परिणमन रूप क्रिया से आत्मा अनित्य और द्रव्यत्व या जीवत्व में सदैव स्थायी होने से नित्य है। तत्वार्थ में धर्म, अधर्म, आकाश और काल को निष्क्रिय बताया। इससे यह भली प्रकार से अनुमान लगाया जा सकता है कि पुद्गल और जीव सक्रिय है।
क्रिया की व्याख्या पूज्यपाद ने इस प्रकार की है। “अंतरंग और बहिरंग निमित्त से उत्पन्न होने वाली जो पर्याय द्रव्य के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में प्राप्त कराने का कारण है, वह क्रिया कहलाती है।' यह गतिक्रिया संसारी जीवों में होती हैं इसीलिये यह विभाव क्रिया कहलाती है और सिद्धों में मात्र स्वभाव क्रिया है, जो ऊर्ध्व लोक की ओर ही ले जाती है और संसारी जीवों की क्रिया छह दिशाओं में होती हैं।
द्रव्य और उत्पाद व्यय ध्रौव्य परिणाम युक्त सत् (नित्य) है।' आत्मा 1. वृद.म.टी. 2.9.18. 2. आचागंग मूत्र 1.1.1 3. वही 1.1.5 4. गणधरवाद 1843 5. मायकारिका. 17. 6. प. का 17. 7. म.सि. 5.7.539 एवं त.वा. 5.7.446. 8. नि.मा.ता.व. 184. 366. 9. प्र.मा.
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