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कर्म कोई करें और भोक्ता कोई बनें।
आत्मा के कर्तृत्व और भोक्तृत्व से ही जीव मात्र के कर्मों की विषमता स्थापित होती है। विभिन्न प्राणी हैं, उन सभी के कर्म बंध भी विभिन्न (असमान) हैं। अत: उनके फल भी असमान ही हैं। भगवती में समानत्व और असमानत्व को लेकर लम्बी चर्चा है।'
कुंदकुदाचार्य ने समयसार में नयशैली से आत्मा को व्यवहार नय से ज्ञानावरणीय कर्म, औदारिकादि शरीर, आहारादि पर्याप्ति के योग्य पुद्गल रूप नो कर्म और बाह्य पदार्थ घटपटादि का कर्ता कहा है, परंतु अशुद्ध निश्चय नय से राग द्वेष आदि भाव कर्मों का तथा शुद्ध निश्चय नय से शुद्ध चेतन ज्ञान दर्शन स्वरूप शुद्ध भावों का कर्ता है।
संसार एवं मोक्ष इन दोनों का भी जीव स्वयं ही कर्ता भोक्ता है।'
समयसार में संपूर्ण द्वितीय अंक कर्ता और कर्म अधिकार वाला है। समयसार के अनुसार व्यवहार नय से आत्मा अनेक पुद्गल कर्मों का कर्ता, अनेक कर्मपुद्गलों का भोक्ता है।
- इन कर्मों को आत्मा व्याप्यव्यापक भाव से तो करता ही नहीं, निमित्त नैमित्तिकभाव से भी आत्मा कर्त्ता नही है। जीव घट, पट अथवा अन्य किन्हीं द्रव्यों का कर्ता नहीं है। परन्तु घटादि व क्रोधादि को उत्पन्न करने वाले योग व उपयोग का कर्ता है।'
आत्मा कर्ता और भोक्ता उपचार (व्यवहार) से है, परमार्थ से नहीं। जीव निमित्तभूत होने पर कर्मबंध का परिणाम होता हुआ देख कर, जीव ने कर्म किया, यह उपचार मात्र से कहा जाता है।
युद्ध में सेना ही संघर्ष करती है, पर कथन यही होता है-राजा ने युद्ध किया। उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म जीव ने किये, यह भी उपचार
1. भगवती 1.2.5-10. 2. समयसार 98. 3. कार्तिकेयानुपेक्षा 188. 4. समयसार 84 5. समयसार 100 6. समयसार 105
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