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है। किसी व्यक्ति को देखने मात्र से प्रियता और अप्रियता का भाव अचानक नहीं उठता, कहीं न कहीं उसके सुख-दुःख कारण का अनुभव हुआ होगा, इस प्रवृत्ति से भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध है।
आत्मा और उपनिषदः-अधिकांश भारतीय दार्शनिकों ने चेतन और अचेतन को सृष्टि का मौलिक तत्व माना है। जैन दर्शन ने इन्हें जीव और अजीव; सांख्य ने इसे प्रकृति और पुरुष; और बौद्ध ने इन्हें ही नाम और रूप के रूप में प्रतिपादित किया है।
उपनिषद् का दृष्टिकोण अत्यंत आत्मवादी रहा है। समस्त तत्वों में आत्मा को ही श्रेष्ठतम तत्व कहा गया है। जब याज्ञवल्क्य अपनी भौतिक संपदा का अपनी पनियों में विभाजन करके संन्यस्त होने का निर्णय लेते हैं, तब उनकी पत्नी मैत्रेयी उनसे दीर्घ संवाद करती हैं। जिसका निष्कर्ष यह प्राप्त होता है कि "जिस संपत्ति से मैं अमृत नहीं बन सकती, उसकी प्राप्ति निरर्थक है, जिसे पाकर अमृत बनूँ उसी का उपदेश दें।" तब याज्ञवल्क्य उन्हें इस प्रकार से आत्मा का उपदेश देते हैं- “आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और ध्यान करने योग्य है।"
नचिकेता भी जब आत्म तत्व को जानने की प्रबल जिज्ञासा अभिव्यक्त करते हैं, तब उन्हें यम अगणित भौतिक विभूतियों का प्रलोभन देकर आत्मा की जिज्ञासा से विरत करने का प्रयास करते हैं। परंतु नचिकेता सारी सांसारिक विभूतियों को ठुकराकर मात्र आत्मतत्व जानने की ही इच्छा अभिव्यक्त करते हैं, तब यम आत्म स्वरूप को प्रकट करते हैं!
छान्दोग्योपनिषद् में आत्म विद्या को इतना महत्वपूर्ण माना है कि उसके समक्ष समस्त विद्याएँ निरर्थक और व्यर्थ हैं। नारदजी सनत्कुमार से कहते हैं, "मैं चारों वेद, इतिहास, पुराण, गणित और सर्पादि विद्याओं का ज्ञाता हूँ, फिर भी आत्मविद्या के अभाव में शोकाकुल हूँ।" उनकी शोकमुक्ति के 1. रा.वा. 2.8.19 पृ. 122 2. न्याय. 68.69.71 पृ. 39 3. बृहदारण्यकोपनिषद् 2.4.1.3. 4. वही 2.4.5 5. कठोपनिषद् 1.20 6. कठोपनिषद् 2.28.
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