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कारणकार्यभाव से की है। इस कारणकार्यभाव को ही संसार की अविच्छिन्नता का कारण बताया। “परिवर्तन युक्त तत्व अस्तित्व रखता है।" यह सत्य है कि जो कुछ विद्यमान है वह सब कारणों एवं अवस्थाओं से ही प्रादुर्भूत हुआ है और प्रत्येक स्थिति में अस्थिर है।'
बुद्ध ने यह भी स्पष्ट किया कि चेतना मात्र क्षणिक है, वस्तुएं नहीं। यह प्रत्यक्ष है कि यह शरीर एक वर्ष, सौ या इससे भी अधिक समय तक रह सकता है, परंतु जिसे मन, बुद्धि, प्रज्ञा या चेतना कहते हैं, वह दिनरात एक प्रकार के चक्र के रूप में परिवर्तित होती रहती है।
बुद्ध न आत्मा की स्वीकृति देते हैं न आत्मा से संबंध रखने वाली अन्य किसी वस्तु की। उनके अनुसार आत्मा की नित्यता, अपरिवर्तनशीलता आदि मूरों की बकवास है।' - बुद्ध ने इस पुद्गल को क्षणिक और नाना कहा है। यह चेतन तो है, पर मात्र चेतन है, ऐसा नहीं है। वह नाम और रूप इन दोनों का समुदाय रूप है। इसे भौतिक या अभौतिक का मिश्र रूप कहना चाहिये। इसमें भी भगवान् बुद्ध का मध्यम मार्ग झलकता है।
चार्वाक और आत्माः- चार्वाक के अनुसार पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश के अतिरिक्त आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं है। इन पंचमहाभूतों से आत्मा उत्पन्न होता है और इन्हीं में विलीन हो जाता है।'
प्राचीन चार्वाक चार महाभूत ही मानते थे, परंतु अर्वाचीन चार्वाकों ने प्रसिद्ध होने से पाँचवें आकाश को भी महाभूत मान लिया।
आगे वे कहते हैं कि इन पंचमहाभूतों के अतिरिक्त कोई तत्व नहीं है। क्रिया, अक्रिया, सुकृत, दुष्कृत, कल्याण, पाप, अच्छा, बुरा, सिद्धि, असिद्धि, नरक या अन्य गति आदि इनसे ही हैं। 1. भा. दर्शन भाग 1. डा. राधा. पृ 341 2. संयुक्त. 2-96 3. मज्झिम निकाय 1.138. 4. संयुक्त निकाय 1.135 5. सूत्रकृतांग 1.1.7, 8. 6. सूत्रकृतांग 2.1.655.
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